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धर्मसभा में भेज रहा है; वह तुम्हारा पुत्र मरीचि इस भरतक्षेत्र में और इसी अवसर्पिणी काल का 'महावीर' नामवाला अन्तिम तीर्थंकर होगा। इससे पूर्व वह प्रथम नारायण और चक्रवर्ती भी बनेगा । "
आत्मज के लिये यह सुनकर भरत बहुत आनन्दित हुये । वे हर्षातिरेक में तुरन्त यह शुभ - समाचार देने साधु मरीचि के पास गये और गद्गद् उत्कण्ठ से बोले - “मरीचि !
धन्य हो, तुम धन्य हो । तुम इस भरतक्षेत्र में अन्तिम तीर्थंकर बनोगे । यह शुभ - संवाद स्वयं भगवान् ने दिया है।" सुनकर मरीचि खुशी के आवेग में उन्मत्त हो उछल पड़ा और लगा झूम-झूम चिल्लाने— “मैं प्रथम नारायण, चक्रवर्ती और फिर अन्तिम तीर्थंकर बनूँगा।” इससे मरीचि में का मद / अहंकार जाग उठा । साधुचर्या का कठिन-मार्ग तो वह पहले ही छोड़ चुका था। अब उसने परिव्राजक का वेष धारणकर भगवान् ऋषभदेव के समानान्तर स्वतंत्र मत स्थापित कर लिया । परिणामस्वरूप चारों गतियों में जन्म-मरण करता हुआ तीर्थंकरत्व से दस-भव - पूर्व सिंह बन मृग का वध करने जा रहा था कि दो ऋद्धिधारियों के उपदेश से उसे आत्मबोध हुआ । कालान्तर में दो भव पूर्व नन्दमुनि की पर्याय में तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया ।
अगले भव में 16वें स्वर्ग में देवगति से चयकर वैशाली गणराज्य के क्षत्रिय कुण्डग्राम में महाराजा सिद्धार्थ की महारानी त्रिशला की कोख से चैत्र शुक्ल 13 को जन्म लिया । उनके इस जन्म से सर्वत्र सुख - शान्ति हो गई। राजकीय वैभव में पले अनेक चमत्कृत करनेवाली घटनाओं के बीच वे वर्द्धमान हुये । पर जल से कमलवत् भिन्न रहकर आत्मलीन रहते। 30 वर्ष की युवावस्था में माता-पिता के विवाहादि आग्रह को अस्वीकार कर राज्य- वैभव के सुख को तृणवत् त्यागकर दिगम्बर श्रमण हो गये और वैराग्य- - पथ पर चल पड़े। 12 वर्ष की अखण्ड मौन साधना से पूर्व कर्मों की निर्जरा कर कैवल्य को प्राप्त किया । वे अतीन्द्रिय ज्ञान के धनी लोकालोक के ज्ञाता - द्रष्टा महावीरत्व को प्राप्त हुये ।
दिव्यज्ञान होने पर भी ज्ञान के योग्य संवाहक के अभाव में 65 दिन तक महावीर की वाणी मुखरित नहीं हुई । इन्द्र ने इस रहस्य को समझा । अपने वाक् चातुर्य से (त्रैकाल्य द्रव्यषट्कं ) से युक्तिपूर्वक स्वाभिमानी वैदिक विद्वान् इन्द्रभूति गौतम को धर्मसभा में आये । उत्तुंग मानस्तम्भ पर वर्द्धमान महावीर के सौम्य - वीतरागी व्यक्तित्व को देखते ही गौतम को आत्मानुभूति हुई। उनके क्षयोपशम के अहं की निशा का अन्तिम प्रहर समाप्त हो गया और वे महावीर के परमभक्त बन गये । विचारों की निर्मलता और परिणामों की शुद्धता से उन्हें मन:पर्ययज्ञान प्राप्त हो गया । गौतम जैसे योग्य शिष्य के उपस्थित होते ही महावीर का दिव्य-सन्देश ॐकारमयी भाषा में प्रारम्भ हुआ; जिसे गौतम ने ग्रहण कर प्राणीमात्र की भाषा में जन-जन तक पहुँचाया। यह क्रम 30 वर्ष तक चलता रहा । संवाद - सम्प्रेषण की इससे आदर्श तकनीक और क्या हो सकती है ?
104 प्राकतविद्या जनवरी-जन' 2001 (संयक्तांक) महावीर चन्दना-विशेषांक For Private & Personal Use Only
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