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________________ (७३) यतः ॥ विनागुरुभ्यो गुण नीरधिभ्यो, जानाति धर्म न विचक्षणोपि ॥ प्राकर्ण दीर्घेज्वल लोचनोपि, दीपं विना पश्यति नांधकारे ॥ १ ॥ भावार्थ:- गुण समुद्र गुरुओंके विना, विचक्षण पुरुष भी, यथार्थ धर्मको नहीं जानता है, जैसे कानपर्यंत लंबे निर्मल नेत्रवाला भी पुरुष, अंधकार में बिना दीपकके, नहीं देखता है. चौमासे बाद, यहां संवत् १९४८ मगसर वदि पंचमी के दिन, गुजरात देशमें शहेर अहमदाबादके पास वलाद नामा गामके रहनेवाले डाह्याभाईको दीक्षा दीनी; और " श्री विवेक विजयजी " नाम स्थापन करके, उही दिन जीरेके श्रावकों की नूतन जिन मंदिरकी प्रतिष्ठा करानेकी विनती मंजूर करके, पट्टी से विहार किया, और जीरा गाममे पधारे. + Mast पूर्वोक्त श्रावक आये, तथा भरुच निवासी शेठ “अनूपचंद मलूकचंद " सपरिवार, नूतन स्फाटिक रत्नके जिनबिंबकी अंजनशिलाका ( मंत्रपूर्वक संस्कार ) कराने के वास्ते, आये. और भी देश देशावरोंके बहुत लोक आये. संवत् १९४८ मार्गशीर्ष मुदि एकादशी (मौन एकादशी पर्व) के दिन, विधि पूर्वक नूतन बिंबको अंजन करके, "श्री चिंतामणि पार्श्वनाथजी”को नवीन जिन मंदिर में गद्दी ऊपर पधराये. निर्विघ्नतासे महोत्सव पूर्ण होने के बाद, जीरासे विहार करके नीकोदर, जालंधर, होकर शहेर हुशीआरपुर में पधारे. क्योंकि, यहां के रहनेवाले परम उपकारी शेठ लाला गुज्जरमलजीने नवीन जिन मंदिर, बनाया था. तिसकी प्रतिष्ठा करानेका मुहूर्त, साधना था. यहां भी पूर्वोक्त बडौदेवाले गृहस्थही आये थे. संवत् १९४८ माघ सुदि पंचमी (वसंत पंचमी) के दिन, निर्विघ्नतापूर्वक " श्री वासुपूज्य स्वामी " - को गद्दी ऊपर स्थापन करे बाद, आसपास के गामोंमे कितनाक समय व्यतीत करके * जीराके श्रावकों का आनंद यह स्तुतिसें जाहिर होता है. ( पंजाबी - हिंदी भाषा में ) १० Jain Education International चलो जी महाराज आए प्यारे, मात रूपदेवी जाए ॥ अंचली ॥ भाग्य उनोदे तेज भए जब, सूरि पदवी पाइ ॥ नगर पट्टी में किया चौमासा, लोक सवी तर जाइ ॥ च० ॥ १ ॥ मुनी इग्यारह (११) संग उनींदे, एकसे एक सवाए | महेरबान जब होए सबीजी, जीरे नगर उठ धाए ॥ च० || २ || सुनी बात जब सब सेवकने, मनमें खुशी मनाई ॥ लगे शहर में बाजे बजन, ध्वजा निशान सजाए ॥ च० ॥ ३ ॥ धूमधामसे जलै लैनको, महिमा कही न जाए । एक दूसरा चले अगाडी, आगेही कदम उठाए ॥ च० ॥ ४ ॥ तीन कोशपर मिले सबी जा, चरणी सीस नमाए || सीस उठाके दर्शन पाए, धन्य रूपदेवी जाए ॥ च० ॥ ५ ॥ सबी संघ होकर आनंदी, तरफ शहरदी आए || || नगर बिच परवेशही कोना, मान बैठक उतराए ॥ च० || ६ || चौंकी ऊपर आनही बैठे, मंगलिक आख सुनाए । भरी सभामें दीनानाथ और खुशीराम गुण गाए ॥ च० ॥ ७ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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