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विजयजी स्वर्गवास हुए. दिल्लीसे विहार करके बिनौली, बडौत वगैरह होकर शहेर अंबालामें पधारे. यहां “गोविंद” और “गणेशी," नामा दो ढुंढक साधु, दूसरे साधुओंसे लढके, संवेगमत अंगीकार करनेके वास्ते,श्रीमहाराजजी साहिबके पास आकर, प्रार्थना करने लगे. तब श्री महाराजजी साहिबने कहा कि, "हाल तुम कमसे कम छ महिने तक हमारे साथ इसही (ढुंढक) वेष में रहो, और संवेगमतकी क्रियाका अभ्यास करो; पीछे तुमको रुचे तो अंगीकार करना, अन्यथा तुमारी मरजी.” यह सुनकर कितनेक श्रावकोंकी, और साधुओंकी अरजसें श्रीमहाराजजीकी मरजी नहीं भी थी तो भी, संवेगमतकी दीक्षा देनी पडी. परंतु अंतमें दोनोंही, भ्रष्ट होगये. इस वखत सब श्रावक, और साधुओंको, श्री महाराजजी साहिबका कहना याद आया. सत्य है.-"वृद्धोंका कहना,और आमलेका खाना, पीछेसें फायदा देता है." अंबालासे विहार करके शहेर लुधीयानामें पधारे, वहां कितनेही आयसमाजी वगैरह मतोंवाले लोक, निरंतर आते रहे; अच्छी तरह वातीलाप होतारहा, निरुत्तर होकर जाते रहे. जिसमेंसे एक ब्राह्मणका लडका " कृश्नचंद्र 7 नामा जो आर्य समाजकी सभामें भाषण दिया करताथा, महाराजजी साहिबके न्याय सहित उत्तर सुनकर, बहुत खुश हुआ, और यथार्थ धर्मका निर्णय करके गुरुमंत्र धारण करके, श्री महाराजजी साहिबका उपाशक होगया. एक महीने बाद विहार करके " मालेर कोटले" पधारे, और संवत् १९४७ का चौमासा, वहां किया, चौमासेमें "श्री आवश्यक सूत्र,” और “धर्मरत्न" सटीक वांचते रहे. “गौदामल्ल क्षत्रीय, जीवाभक्त, " वगैरह कितनेही भव्यजीवोंको सत्य धर्ममें लगाये. चौमासे बाद विहार करके “ रायका कोट, जीगरांवा, जीरा” होकर “पट्टी" पधारे. इस वखत - पट्टीका स्वरूप बदल गया, अर्थात् प्रथम, आठ दशही घर श्रावकके थे, परंतु श्रीमहाराजजी साहिबके पधारनेसें, यथार्थ निर्णय करके अनुमान अस्सी (८० ) घर सनातन धर्मके तरफ ख्याल करनेवाले होगये. श्रावकोंने चौमासा करनेकी विनती करी. परंतु चौमासा दूर होनेसे जवाब दिया गया कि, "चौमासेके वखत यदि क्षेत्र फरसना होवेगी तो यहांही करेंगे.भाव तो है, परंतु अबतक निश्चयसें नहीं कह सकतेहैं, क्योंकि, न जाने कल क्या होवेगा?" बाद पट्टीसें विहार करके कसूर होकर शहेर अमृतसर पधारे. यहांके श्रावकोंने नवीन श्रीजिन मंदिर, बनाया था, जिसमें "श्रीअरनाथ स्वामी की प्रतिष्ठा संवत् १९४८ का वैशाख सुदि छठ बृहस्पति वारके दिन करी. इस प्रतिष्ठाकी क्रिया कराने के वास्ते, शहेर बडोदेसे झवेरी गोकलभाई दुल्लभदास और शेठ नहानाभाई हरजीवनदास गांधीको बुलाये थे. निर्विघ्नपणे प्रतिष्ठा महोत्सव पूर्ण होने बाद, श्रीमहाराजजी साहिब, विहार करके झंडीयाले पधारे. यहां सुरतके चौमासेमें श्री महाराजजी साहिबने जो " जैनमतवृक्ष" बनायाथा. और भीमसिंह माणेकने छपवाया था, सो बहुत अशुद्ध छपनेसे, पुनः परिश्रम करके शुद्ध तैयार करके, वांचनेवालोंको सुगमता होनेके वास्ते, पुस्तकके आकारमें तैयार किया, जो इस वखत छपगयाहै. यहां पीके श्रावकोंकी विनतीसे झंडियालेसें विहार करके, पट्टी पधारे. और संवत् १९४८ का चौमासा पट्टीमें किया. चौमासे पहिले कितनेक साधुओंकी प्रार्थनासे “ चतुर्थ स्तुतिनिर्णय " भाग दूसरा बनाया और चौमासामें "नवपदपूजा” बनाई. श्रीउत्तराध्ययनसूत्रवृत्ति कवलसंयमी, और श्री रत्नशेषर सूरि विरचित श्राद्ध प्रतिक्रमणवृत्ति अर्थदीपिका, वांचते रहे, सुनकर लोक बहुत दृढतर होगये. सत्य है"गुरुविना ज्ञान नहीं.”
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