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________________ (७१) शेठ “गीरधरलाल हीराभाई, ” जो उस वखत राज्य पालनपुरके न्यायाधीश थे, तिनकी प्रेरणासे छोटी उमरके बालकोंको भी प्रायः धर्मका स्वरूप मालुम होवे, उस ढबपर, " श्रीजैन प्रश्नोत्तरावली” नामा ग्रंथ प्रारंभ किया. ऐसे आनंदसें चतुर्मास पूर्ण करके श्रीमहाराजजी साहिब विहार करके तारंगाजी वगैरह तीर्थकी यात्रा करते हुये, शहेर “पालनपुर में पधारे. और "जैन प्रश्नोत्तरावलि ” ग्रंथ पूर्ण करके पूर्वोक्त महाशयको दिया जो उन्होंने छपवाकर प्रसिद्ध किया. "वर्धमान १ दशाडा निवासी, “वाडीलाल" शहेर पाटन निवासी वगैरह सात जनोंको दीक्षा देकर यह नाम रखे. (१)श्रीशुभबिजयजी (२)श्रीलब्धिविजयजी (३) श्रीमानविजयजी (४)श्रीजशविजयजी (५) श्रीमोतिविजयजी (६) श्रीचंद्रविजयजी (जिसका नाम इस समय “श्रीदानविजयजी" कहा जाताहै.) (७ ) श्रीरामविजयजी. ऐसे पांच वर्षमें गुजरात देशमें श्रीजैनधर्मका बहुत उद्योत किया. कई भव्य जीवोंको प्रवज्यारूप नावमें बिठाकर, संसार समुद्रसें पार लंघाये. हजारांही श्रावकोंने बत, नियम, प्रत्याख्यान, अंगीकार किये. तथा शब्दांभोनिधि, गंधहस्तिमहाभाष्यवृत्ति, (विशेषावश्यक ) वादार्णव सम्मतितर्क, प्रमाणप्रमेयमार्तंड, खंडखाद्य वीरस्तव, गुरुतत्त्व निर्णय, नयोपदेश अमृत, तरंगिणी वृत्ति, पंचाशक सूत्रवृत्ति, अलंकार चूडामाण, काव्यप्रकाश, धर्मसंग्रहणी मूलशुद्धि, दर्शनशुद्धि, जीवानुशासन वृत्ति, नवपद प्रकरण, शास्त्रवार्ता समुच्चय, ज्योतिर्विदाभरण, अंगविद्या, वगैरह सैंकडों शास्त्र लिखवाके, अभ्यास किया. ऐसे ऐसे अपूर्व ग्रंथोंको लिखवायके उद्धार कराया, जो हर एक ठिकाने मिलने मुश्कल होवे. __ पालनपुरसे विहार करके पंजाब देशके श्रावकोंको धर्मोपदेश द्वारा दृढ करनके वास्ते, “ आबुजी, सीरोही, पंचतीर्थी 7 होकर शहर “पाली में पधारे. यहां मुनि वल्लभविजयजी आदि नवीन साधुओंको योगोहहन करायके पुनःसंस्काररूप छेदोपस्थापनीय चारित्र प्रदान किया. वाद पालीसे विहार करके श्रीमहाराजजी साहिब, शहेर “जोधपुर में पधारे,और संवत् १९४६ का चौमासा वहां किया. श्रावकोंकी अभिलाषा पूर्वक व्याख्यानमें श्रीमान् श्री “हेमचंद्र सूरिन विरचित, श्री “ योगशास्त्र" बांचते रहे. इस चौमासेमें श्रीमहाराजजी साहिबको युरोपमें छपा हुआ “ऋग्वेद" का पुस्तक, "डॉक्टर ए. एफ. रुडॉल्फ हॉरनल " साहिबके जरियेसे ब्रीटीश सरकारकी तरफसे, आबुके “ एजंट टु धी गवरनर जनरल' साहिबकी मारफत भेट आया. चौमासे बाद महाराजजी श्री जोधपुरसे विहार करके “ अजमेर " पधारे, जहां समवसरणकी रचना हुई, धर्मका अच्छा उद्योत हुआ. बाद “जयपुर, अलवर' होकर शहेर दिल्लीमें पधारे. यहां इनको, अपने रत्न समान शिष्य शिष्य, "श्री हर्ष विजयजी” का वियोग हुआ, अर्थात् श्री हर्ष __ भावार्थ--दुराग्रह रूपी ध्वान्त अर्थात् अंधकारको नाश करनेमें सूर्य समान और हितकारी उपदेश रूप अमृत समुद्र समान चित्तवाले, संदेह का समूहसे छुडानेवाले, जैन धर्मके धुरके धारण करनेवाले आप हो. १. - सज्जन पुरुषोंकी अज्ञानकी निवृत्तिके अर्थ आपने “ अज्ञान तिमिर भास्कर" और "जैन तत्वादर्श' नाम ग्रंथरचे, हैं. २. महामुनि श्रीमन् आनंदविजयजी ( आत्मारामजी) ने मेरे संपूर्ण प्रश्नोंकी व्याख्या की; इस लिये हे मुनि ! आप शास्त्रमें पूर्ण हो. ३. यत्नसे संपादित और संस्कार किया हुवा कृतज्ञताका चिन्ह रूप यह ग्रंथ श्रद्धा पूर्वक आपको अर्पण करताहूं. ४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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