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(५९) श्री विजयसेन सूरि (६०) श्री विजयदेव सूरि (६१) श्री विजयसिंह सूरि (६२) श्री सत्यविजय गणि (६३) श्री कपूरविजय गणि (६४) श्री क्षमाविजय गाणि (६५) श्री जिनविजय गणि (३६) श्री उत्तमविजय गणि (६७) श्री पद्मविजय गणि (६८) श्री रूपविजय गणि (६९) श्री कीर्चिविजय गणि (७०) श्री कस्तूरविजय गणि (७१) श्री मणिविजय गणि (७२) श्री बुद्धिविजय गाणि (बूटेरायजी)
(७३) श्री विजयानंद सूरि (श्री आत्मारामजी)पालीताणाके चौमासेमें श्रीआनंद विजयजी महाराजने श्रीतीर्थाधिराजको भाव पूजारूप पुष्प भेट करनेके वास्ते, "अष्टप्रकारी पूजा” बनाई.
चौमासे बाद कितनेक दिन यात्राके निमित्त रहकर, विहार करके “ सीहोर, वला, बोटाद, लीबडी, वढवाण" होकर " लखतर" आये. इस राज्यका दिवान “फूलचंद कमलसी” श्रावक होनेसें, श्रीमद्विजयानंद सूरिका आगमन राजासाहिबको भी मालुम हुआ, और वे भी श्रीमहाराजजी साहिबके पास आकर धर्मकी चर्चा करते रहे. राजा साहिबने अपना दिल धर्मके तरफ लगा हुआ होनेसे, श्रीमहाराजजी साहिबको रहनेके वास्ते प्रार्थना करी. परंतु श्रावक समुदायके घर थोडे होनेसे, वहां ज्यादा रहना, श्रीमहाराजजी साहिबने ठीक न समझा. लखतरसे विहार करके “वीरमगाम, रामपुरा" होकर “भोयणी” गाममें आये; और श्रीमल्लीनाथ स्वामीके दर्शन पाये. बाद विहार करके " मांडल, दशाडा, पंचासर, 17 होकर “शंखेश्वर” गाममें " श्रीशंखेश्वर पार्श्वनाथजी" की यात्रा करके, चंडावल, समनी, गोचीनार होकर शहेर “राधनपुर" जहां अनुमान पंदरांसौ घर श्रावकोंके और (२५) मंदिर है, पधारे. यहां बडौदे शहेरके रहनेवाले “ छगनलाल " नामा लडकेको, श्रावकोंका अत्याग्रह होनेसेही संवत् १९४४ वैशाख सुदि तेरस बुधवारके दिन, दीक्षा दी; और "श्रीवल्लभ विजयजी" नाम रखा. बाद श्रीमदिजयानंद सूरि, यहांसे विहार करके "उण, जामपुर, उंदरा, ” वगैरह गामोंमें होकर शहेर "पाटण में जहां अनुमान अढाई हजार श्रावकोंके घर, और (५००)जिन मंदिर है, पधारे; और "श्री पंचासरा पार्श्वनाथ की यात्रा की. यह मूर्ति “वनराज चावडा” ने, श्री शीलगुण सूरिके पास प्रतिष्ठा करायके, स्थापन करीथी; इस मंदिरमें वनराज चावडेकी भी मूर्चि है. इस शहरमें पुराणे जैन पुस्तकोंके भंडार देखके, कई पुस्तकोंके उतारे कराय लिये. अनुमान एक महिना रहकर शहेर राधनपुरके श्रावकोंके आग्रहसे पाटण शहेरसें विहार करके,पीछे राधनपुरमें पधारे; और संवत् १९४४ अषाढ सुदि दशमी बृहस्पति वारको एक लडकेको दीक्षा दी, जिसका नाम श्री “भक्ति विजयजी” रखा-जो अब गुण विजयके नामसे कहाताहै. संवत १९४४ का चौमासा, यहांही किया; इस चौमासेमें श्रीमद्विजयानंद सूरिने व्याख्यान नहीं किया;
श्री मुक्तिविजयजी गणि प्रसिद्ध नाम मूलचंदजी महाराजजी भी श्री बुद्धिविजयजी गाण महाराजजीके पाट उपर हुए हैं. अर्थात् श्री मूलचंदजी और श्री आत्मारामजी दोनोंही श्री बूटेरायजी महाराजजीके पाट ऊपर हुये, तथा किसी पट्टावलिमें श्री विजयदेव सूरि और श्री विजयसिंह सूरि दोनों एकही पट्ट ऊपर गिने है, तो उस मुजब श्रीमद्विजयानंद सूरि बहत्तर (७२) मे पट्ट उपर जानने.
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