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________________ की बडी धूम धामसें दीक्षा हुई, जिसमें अनुक्रम करके श्रीआनंद विजयजी महाराजजीने उन्होंके यह नाम रखे(१) “विनय विजयजी (२) कल्याण विजयजी (३)सुमति विजयजी(४) मोती विजयजी. बाद चौमासेके दिन नजदीक आजानेसें संवत् १९३५ का चौमासा, श्रीआनंद विजयजीने शहर लुधीआनामें किया. इस सालमें देश पंजाबमें कितनेही शहरोंमें बिमारीका बहुत जोर था. जीसमें भी लुधीआनामें अधिकतर बिमारीका जोरथा. जिस बिमारीमें मगसर महिनेमें श्रीआनंद विजयजी महाराजजीके शिष्य " रत्नविजयजी" (हाकमरायजी) स्वर्गवास हुये. और श्रीआनंद विजयजीको भी, कितनेक दिनोंतक ताप आया. जिस तापका ऐसा जोर वध. गया कि, श्रीआनंद विजयजी बेहोश होगये. यह हाल देखकर सकल श्रीसंघको अतीव खेद पैदा हुआ. अब इस वखत क्या करना चाहिये ? ऐसे विचारमेंही सकल श्री संघ दिग्मूढ होगया, परंतु मालेर कोटला निवासी लाला “कवरसेन जो कि जैनमतके रहस्य उत्सर्ग अपवादादि षड्भंगीका अच्छा ज्ञान धारण करताथा, तिसने आके लाला "गोपीमल्ल," और "प्रभदयाल नाजर ” वगैरहको समझाया कि, “ विचार करने करनेमेंही तुम काम बिगाड देवोगे! यह समय विचारनेका नहीं है, जलदी श्रीमहाराजजी साहिबको, शहर अंबालामें लेचलो. क्यों कि, वहांकी आब हवा इस वखत बहोत अच्छी है." यह सुनकर कितनेकके मनमें तो यह बात रुचि नहीं; परंतु कवरसेन बडा लायक होनेसें उसका कथन, कोई भी अन्यथा नहीं कर सकता था. वहांसें शहेर अंबालामें लेगये. वहांगये बाद दो दिन पीछे, जब श्रीआनंद विजयजीको तपका जोर कुच्छ नरम हुआ, और कुच्छ होश आया, तब देखते हैं तो, अपने आपको शहर अंबालाके उपाश्रयमें देखें. आश्चर्य प्राप्त होकर कहने लगे कि, “ यह क्या हुआ ? मुजे कोई स्वप्न आया है? अथवा यह कोई इंद्रजाल हो रहा है? या मुझे कोई मतिभ्रम होगया है ? क्योंकि, मैं तो लुधीआनेमें था; और इस वखत मुझे अन्यही अन्य भान हो रहा है. ऐसे अनेक प्रकारके संशयां दोलारूढ हुये विचार कर रहेथे, इतनेमें लाला कवरसेन वगैरह श्रावक समुदाय, हाथ जोडकर कहने लगे कि, “महाराजजी साहिब ! आप शोच मत करें. आपको लुधीआनासें हम यहां ( अंबालामें ) ले आये हैं.” इत्यादि सब वृत्तांत सुनाया. अनुमान दो महिने बाद जब श्रीआनंद विजयजीको आराम होगया, तब पूर्वोक्त सब हाल लिखकर शहर अहमदाबादमें गणिजी " मुक्ति विजयजी" (मूलचंदजी ) महाराजजीके पास भेजा. उन्होंने श्री जैनशास्त्रानुसार, जो कुच्छ प्रायश्चित्त देना ठीक समझा, दिया. जिसको श्रीआनंदविजयजी महाराजजीने भी, बडी खुशीसें स्वीकार किया. इस वखत शहर अंबालामें "श्रीवीरविजयजी, "श्रीकांतिविजयजी," " श्रीहंसविजयजी की दीक्षा हुई. बाद अंबालासे विहार करके लुधीआना, जालंधर होते हुये गुरुके “ झंडीआले" आये. और संवत् १९३६ का चौमासा, श्रीआनंदविजयजीने झंडीआलामें किया. " नारोवाल, 7 “सनखतरा” चौमासे बाद विहार करके "जीरा,” “पट्टी, " "अमृतसर, " होते हुये शहेर "गुजरांवाला में पधारे. और संवत् १९३७ का चौमासा, वहां ही किया. चौमासे पहिले इस जगा, श्रीमाणिक्य “ विजयजी," और " श्रीमोहनविजयजी" की दीक्षा हुई, और चौमासेमें श्रीआनंदविजयजी महाराजजीनें, बहुत लोकोंके कहनेसें, संस्कृत, प्राकृत नहीं जाणनेवालोंको बोध होने के लिये, “ जैनतत्त्वादर्श' (जैनधर्मके तत्त्वोंका सीसा दर्पण)इस नामका ग्रंथ, बनाना सुरु किया. चौमासे बाद विहार करके “पींडदादनखां” में गये, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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