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________________ (६१) वास्ते बहुत प्रार्थना करी. परंतु देश पंजाबमें, जो सत्यधर्मका बीज लगायाथा, तिनको प्रफुल्लित करनेका इरादा करके, संघसें जूदे होकर, “मोरबी, ध्रांगध्रा, झींझुवाडा, ” होकर "शंखेश्वर” गाममें, श्री “शंखेश्वर पार्श्वनाथ ” की मूर्ति, जो शंखपति, “ कृष्णवासुदेव को " धरणेंद्र 7 की आराधनासे मिलीथी, और जिसके स्नात्रजलके छिटकनेसें, “जरासिंध” नामा प्रतिवासुदेवकी जरा विद्या, कृष्ण वासुदेवके लश्करसें दूर हुई थी. ऐसे प्रभाववाली श्री पार्श्वनाथकी मूर्तिके दर्शन करनेसें सब साधु, बहोतही आनंदित हुए. यहांसें विहार करके श्री “आनंदविजय जी, 7 "पाटण 7 शहरमें पधारे. तहां प्राचीन जैन पुस्तकोंके भंडार देखे, तिनमेसें कितनेक ग्रंथोंकी नकलें भी करवाई. पाटणसें विहार करके “तारंगाजी" तीर्थपर, “राजाकुमारपाल' के उद्धार किये बडे भारी मंदिरमें विराजमान, श्री “ अजितनाथ स्वामी" की यात्रा करी और विहार करके "पालणपुर, आबु, शिरोही, पंचतीर्थी, " वगैरहकी यात्रा करते हुए शहर "पाली" में आये. तहां शहर “जोधपुर " के श्रावकोंका पत्र, श्रीआत्मारामजीको मिला. जिसमें लिखाथा कि, “यहां (जोधपुरमें ) इसवखत (३५) ढुंढक साधु, आपके साथ चरचा करनेके वास्ते एकत्र हुए हैं. जिसमें दिवान् “ विजयसिंह मेहता, पंडित मंडल सहित, मध्यस्थ नियमित किये गये हैं. इसवास्ते आप कृपा करके जलदी शहर जोधपुरमें पधारके, हम सेवकोंकी अभिलाषा पूर्ण करें" इसवास्ते श्री आनंदविजयजीने, थोडेही दिन पाली में रहकर, शहर जोधपुरके तरफ विहार किया; और क्रम करके शहर जोधपुरमें पहुंचे. इनके यहां पहुंचनेसेंही अगले रोज (३४) ढुंढक साधु तो, सभा होनेके एकदिन पहिलेही, विना चरचा किये, चूपचाप इस तरांह चले गये, जैसे सूर्योदयसें अंधेरा दूर होजाता है. परंतु “ हर्षचंद" नामा एक ढुंढक साधु, रहगयाथा. सो श्रीआनंदविजयजीसे बातचित करके, शुद्ध श्रद्धानमें आगया. श्रीविश्नचंदजी गुरु नाम धराया, और “ हर्षविजयजी" निज नाम पाया. इस वखत ढुंढकोंके अनिष्टाचरणसें राज्यके भयो कितनेही औसवाल, जैनमतको छोडके वैष्णवादि मतका आश्रय लेने लग गयेथे. इसवास्ते इन लोकोंपर कृपादृष्टि करके, श्री आनंदविजयजी महाराजने संवत् १९३४ का चौमासा, शहर जोधपुर ही किया. जिससे प्रथम पचास घर अनुमान ठीक ठीक श्रद्दानवाले रहेथे, सो वधके अनुमान पांचसौ होगये. क्यों न होवे? सूर्यके उदय होनेसें अंधकार दूर होताही है. यदि ऐसे महात्माके आनेसें भी हृदयगत अज्ञानांधकार दूर न होता तो, कब होता? चौमासे बाद जोधपुरसें विहार करके, दुकालके सबबसें रस्तेमें भूख प्यासको सहन करते हुए, श्रीआनंदविजयजी, " जयपूर, दिल्ली होकर देश पंजाबमें शहर अंबालामें आये. इसबखत सूर्योदयसें धूक जानवरको जैसें चिंता होती है, तैसें पंजाबी ढुंढकोको हुई. परंतु सूर्यविकाशी कमलकी तरांह अन्य श्रावकोंके मुखारविंद खिड गये. __ अंवालासें विहार करके शहर लुधीआनामें आये; वहां “श्री उत्तमऋषि, लौंकामतके यति, (पूज) अंबालावालेने सब डेरा छोडके, श्रीआनंदविजयजीके पास पांच महावत अंगीकार किये, और गुरुजीका दिया, श्री “ उद्योतविजयजी” नाम धारण किया. कितनेक दिनों बाद शहर लुधीआनामेंही, जील्ला फिरोजपुर गाम मुदकीका रहनेवाला दुनीचंद ओसवाल, हुशीआरपुरका रहनेवाला, उत्तमचंद ओसवाल, शहेर पाली देश मार वाडका रहनेवाला हर्षचंद ओसवाल, जेजोका रहनेवाला मोतीचंद ओसवाल, इन चार जैनों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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