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और “ मोतीचंद " ओसवाल शहर अमृतसरके रहनेवालेको दीक्षा देकर " श्रीसुंदरविजयजी” नाम रखा. यहांसें विहार करके श्रीआनंदविजयजी, अपने परिवारसहित गाम “ कलश" (महाराजजीकी जन्मभूमि) में पधारे. जिनको देखके श्रीआत्मारामजीके सांसारिक परिवारके " मंगलसेन , “प्रभदयाल " वगैरह पितृव्य भाई, बडे आनंदको प्राप्त हुये. उनकी बहुत प्रार्थनासें एक रात वहां रहे. वहांसें विहार करके "रामनगर, " " पपनाखा," “किला दिदारसिंघ, " " गुजरांवाला, 7 " लाहोर ” “ अमृतसर, 7 “जालंधर, होकर शहर हुशीआरपुरमें पधारे; और संवत् १९३८ का चौमासा, वहांही किया. इस चौमासेमें “जैनतत्वादर्श' ग्रंथ समाप्त किया. चौमासे बाद बिहार करके “जालंधर, "नीकोदर, " "जीरा," कोटला होके “लुधीआना " शहरमें पधारे. और " श्रीजयविजयजी, १ "श्री. अमृतविजयजी, 7 "श्री अमरविजयजी, ” तीन शिष्य नये किये. बाद लुधीआनासें विहार करके श्री आनंदविजयजी महाराजजी, शहेर अंबालामें पधारे. और संवत् १९३९ का चौमासा वहांही किया. इस चौमासामें जैनतत्त्वादर्श नामा ग्रंथ, जो प्रथम बनाया था, सो छपवानेके वास्ते, रायबहादुर धनपतिसिंघ, जो शहेर अंबालामें श्री महाराजजी साहिबके दर्शन करनेको आयेथे, उनको दिया. जो छपवाके प्रसिद्ध किया गया है, और “ अज्ञानतिमिरभास्कर" नामा दूसरा ग्रंथ, बनाना प्रारंभ किया. परन्तु कितनेक वेदादि पुस्तक,जिनकी बहुत जरूरत थी
और जे उस वखत पासमें नहीं थे,इस बास्ते थोडासा लिखके,बंध कियाथा. इस चौमासेमें, पंजाबके श्रावकसमुदायकी प्रार्थनासे, श्रीआनंदविजयजी महाराजजीने “सत्तरभेदीपूजा" बनाई. इतने वर्षों में श्रीआनंद विजयजी महाराजजीके परिवार में हर्षविजयजी, "उद्योतविजयजी वगैरह (१९) शिष्य नये हुये, जिनमें जिस जिसकी दीक्षा, श्री महाराजजी साहिबके हाथसें हुई, तिस तिसके नाम, यहां लिखेहैं, और भी नाम, वंश वृक्षसें मालुम होगा. यह पांच चौमासेमें देश पंजाबमें श्री आनंदविजयजी महाराजजीने, श्री जैनधर्मका बड़ा भारी उद्योत किया;
और कितनेक लोकोंके दिलमें, ढुंढकोंका अनिष्टाचरण देखनेसें, जैनधर्मके ऊपर देष हो रहाथा दूर किया. क्योंकि, लोकोंको मालुम होगया कि, जो मुखबंधे हैं, वे मलीन हैं. और यह पीतांबर धारण करनेवाले, उज्ज्वल धर्म प्ररूपक है, अब इस वखत भी, किसी क्षत्रीय ब्राह्मणके साथ बातचीत होने लगती है तो, उसी वखत वे कहने लग जाते हैं कि, “पंजाब देशके ओसवाल ( भावडे ) तथा खंडेरवालको तो, श्री आनंदविजयजी (आत्मारामजी) महाराजजीने सुधार दिये.” क्योंकि, प्रथम तो येह भावडे लोक, मुहबंधे गंदे गुरुओंकी सोबतसें, बडेही मलीन होगये थे; और इसी वास्ते पंजाब देशमें प्रायः सब जगा, येह लंकाके चुडेके नामसें प्रसिद्ध थे. अब भी जो शेष ढुंढक रह गये हैं, उनको लोक बरे समझते हैं, और उनसे परेहज भी रखते हैं. धर्मको लगा हुआ यह कलंक, दूर किया; येह कोई श्रीआनंद विजयजी महाराजजीने थोडा पुण्य पैदा नहीं किया ! सब जगा जहां जहां जावे, वहां वहां अनेक प्रकारके मत मतांतरोंवालेके साथ चर्चावार्ता होनेसें लोकोंमें जैनधर्मकी "फिलॉसोफी" ( तत्वज्ञान) मालुम होगई; इत्यादि बहुत उपकार कर रहेथे. परंतु नूतन शिष्योंको जैनशास्त्रानुसार, “छेदोपस्थापनी” नामा चारित्रका संस्कार कराना था. सो उसवखत गणिजी महाराज श्री, “ मुक्तिविजयजी” (मूलचंदजी) सिवाय, औरको " श्री बुद्धिविजयजी
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