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तत्त्वनिर्णयप्रासाद
भावार्थ:- अनादि अनंतद्रव्यमें स्वपर्याय समयसमयमें उत्पन्न होते हैं, और विनाश होते हैं, जैसें जलमें जलकल्लोल, तरंग इत्यर्थः ।
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पूर्वोक्त षट् २ हानिवृद्धिरूप, और नरनारकादिरूप, यहां पर्यायशब्दकरके ग्रहण करिये हैं. पर्याय दो प्रकार के हैं, सहभावी पर्याय ( १ ) क्रमभावी पर्याय (२). जो सहभावीपर्याय है, तिसको गुण कहते हैं. पर्यायशब्द पर्यायसामान्य स्वव्यक्तिव्यापीको कथन करनेसें दोष नही. तहां सहभावीपर्यायोंको गुण कहते हैं; जैसें आत्माका विज्ञान व्यक्तिशक्तिआदिक. और क्रमभावीको पर्याय कहते हैं; जैसें आत्माके सुख दुःख शोकहर्षादि.
पर्याय भी, स्वभाव (१) विभाव (२) और द्रव्य (१) गुण (२) करके चार प्रकारके हैं. । तथाहि — स्वभावद्रव्यव्यंजनपर्याय, यथा चरमशरीरसें किंचित् न्यूनसिद्धपर्याय. । १ । स्वभावगुणव्यंजन पर्याय, यथा जीवके अनंतज्ञानदर्शन सुखवीर्य आदि गुण । २ । विभावद्रव्यंजनपर्याय, यथा चौरासी लाख योनि आदि भेद | ३ | विभावगुणाव्यंजन पर्याय, यथा मतिआदि । ४ । पुद्गल के भी द्व्यणुकादि विभावद्रव्यव्यंजन पर्याय है. । ५ । रससें रसांतर, गंधसें गधांतर, इत्यादिकका होना, सो पुगलके विभावगुणव्यंजनपर्याय है. । ६ । अविभागी पुद्गलपरमाणु जे हैं, वे स्वभावद्रव्यव्यंजनपर्याय है. 1७ । एकएक वर्ण गंध रस और अविरुद्ध दो स्पर्श येह स्वभाव गुणव्यंजनपर्याय है. । ८ । ऐसें एकत्वपृथक्त्वादि भी पर्याय है. उक्तंच ॥
एगत्तं च पहतं च संखा संठाणमेवय ॥
संजोगो य विभागो य पज्जयाणं तु लक्खणं ॥ १ ॥
भावार्थ:- एकका जो भाव, सो एकत्व; भिन्न भी परमाणुआदिकमें जैसें यह घट है, ऐसी प्रतीतिका हेतु, सो एकत्व. पृथक्त्व यह इससें पृथक् ( अलग ) है, ऐसे ज्ञानका हेतु संख्या, संस्थान, संयोग, विभाग, च शब्दसें नव पुराणादि, येह सर्व पर्यायके लक्षण है.
पूर्वोक्तस्वरूप, पर्यायही है, अर्थ प्रयोजन जिसका, सो पर्यायार्थिकनय. सो छ (६) प्रकारका है.
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