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षट्त्रिंशःस्तम्भः। (११) द्रव्योंके सामान्य स्वभाव है. तथा चेतनस्वभाव (१), अचेतनस्वभाव (२), मूर्तस्वभाव (३), अमूर्त्तखभाव (४), एकप्रदेशखभाव (५), अनेकप्रदेशस्वभाव (६), विभावस्वभाव (७), शुद्धस्वभाव (८), अशुद्ध स्वभाव (९), उपचरितस्वभाव (१०), येह दश द्रव्योंके विशेषस्वभाव है. एतावता दोनों मिलाके एकवीस (२१) स्वभाव हुए. तिनमें जीवपुद्गलके एकवीस (२१) स्वभाव; धर्मास्तिकाय १, अधर्मास्तिकाय २, आकाशास्तिकाय ३, इन तीनोंके चेतनस्वभाव १, मूर्तस्वभाव २, विभावस्वभाव ३, अशुद्धस्वभाव ४, उपचरितस्वभाव [प्रत्यंतरमें-एकप्रदेशस्वभाव-द्रव्यगुणपर्यायके रासमें शुद्धस्वभाव ] ५, इन पांचोंको वर्जके सोला स्वभाव. कालके पूर्वोक्त पांच, और बहुप्रदेशखभाव, एवं छ (६) स्वभावको वर्जके पंचदश (१५), स्वभाव जानने. तदुक्तम् ॥
एकविंशति भावाः स्युजविपुद्गलयोर्मताः ।।
धर्मादीनां षोडश स्युः काले पञ्चदश स्मृताः॥१॥ इति स्वभाव भी, गुणपर्यायके अंतर्भूतही जानने; पृथक् नहीं. परंतु इतना विशेष है कि, 'गुण' तो गुणीमेंही रहता है, और ‘स्वभाव' गुण गुणी दोनोंमें रहता है. क्योंकि, गुण गुणी अपनी अपनी परिणतिको परिणमता है; और जो परिणति है, सो ही, स्वभाव है.
अथ स्वभावोंके अर्थ लिखते हैं. अस्तिस्वभाव, स्वभावलाभसे कदापि दूर न होना. । १। नास्तिस्वभाव, पररूपकरके न होना. । २। अपने अपने क्रमभावी नानाप्रकारके पर्याय, श्यामत्वरक्तत्वादिक, वे, भेदक हैं; उनके हुए भी, यह द्रव्य, वोही है, जो पूर्व अनुभव किया था; ऐसा ज्ञान जिससें होता है, सो नित्यस्वभाव. । ३ । द्रव्यका जो पर्याय परिणामीपणा, सो आनित्यवभाव. अर्थात् जिस रूपसे उत्पादव्यय है, तिस रूपसें अनित्यस्वभाव है.। ४ । सहभावीखभावोंका जो एकरूपकरके आधार होवे, सो एकस्वभाव. जैसें रूपरसगंधस्पर्शका एक आधार, घट है, तैसें नानाप्रकारके धर्माधारत्वकरके एकस्वभावता.।५।
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