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________________ ७०६ तत्त्वनिर्णयप्रासादएकमें जो अनेक स्वभाव उपलंभ होवे, सो अनेकस्वभाव. अर्थात् मृदादिद्रव्यका स्थास कोस कुशूलादिक अनेक द्रव्य प्रवाह है, तिससे अनेकस्वभाव कहीये; पर्यायपणे आदिष्ट द्रव्य करिये, तब आकाशादिक द्रव्यमें भी, घटाकाशादिक भेदकरके यह स्वभाव दुर्लभ नहीं है. ।६। गुणगुणी, पर्यायपर्यायी, आदिका संज्ञासंख्यालक्षणादिक भेदकरके सातमा भेदस्वभाव जानना.। ७ । संज्ञा संख्या लक्षण प्रयोजन गुणगुणीआदिका एक स्वभाव होनेसें, अभेदवृत्तिद्वारा अभेदस्वभाव.। ८। अनेक कार्यकारणशक्तिक जो अवस्थित द्रव्य है, तिसको ऋमिकविशेषता आविर्भावकरके अतिव्यंग्य होना, अर्थात् आगामिकालमें परस्वरूपाकार होना, सो भव्यखभाव. । ९ । तीनों कालमें परद्रव्यमें मिले हुए भी, परस्वरूपाकार न होना, सो अभव्यस्वभाव. ॥ यदुक्तम् ॥ अन्नोन्नं पविसंता देता ओगासमण्णमण्णस्स ॥ मेलंताविय णिचं सगसगभावं णविजहंति॥१॥ इति. ॥१०॥ स्वलक्षणीभूत परिणामिक भावप्रधानतीकरके परम भावस्वभाव कहिये; तात्पर्य यह है कि, जिस जिस द्रव्यमें जो जो परिणामिकभाव प्रधान है, सो सो, परम 'वस्वभाव है. यथा ज्ञानस्वरूप आत्मा.। ११ । यह सामान्यस्वभावोंका संक्षेपार्थ है. विशेषार्थ देखना होवे तो, बृहतूनयचक्रसें देखलेना. जिससे चेतनपणाका व्यवहार होवे, सो चेतनस्वभाव.। १। चेतनस्वभावसे उलटा, अचेतनस्वभाव. । २। रूपरसगंधस्पर्शादिक जिससे धारण करिये, सो मूर्तस्वभाव. । ३। मूर्तस्वभावसे उलटा, अमूर्तस्वभाव.।४। एकत्वपरिणति अखंडाकारसन्निवेशका जो भाजनपणा, लो एकप्रदेशस्वभाव.। ५। जो भिन्नप्रदेशयोगकरके तथा भिन्नप्रदेशकल्पना करके अनेकप्रदेशव्यवहारयोग्यपणा होवे, सो अनेकप्रदेशस्वभाव.१६। खभात्रो अन्यथा जो होवे, सो विभावस्वभाव.।७। जो केवल शुद्ध होवे, अर्थात उपाधिभावरहित अंतर्भावपरिणमन, सो शुद्धस्वभाव.. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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