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________________ ७०४ तत्त्वनिर्णयप्रासादसो तो जिनाज्ञासेंही माननेयोग्य है. क्योंकि, जे रागद्वेषसे रहित हैं, वे जिन, भगवान्, सर्वज्ञ, अन्यथा नही कहते हैं.। ५। प्रदेशत्व, क्षेत्रपणा, जो अविभागीपरमाणुपुद्गल जितना है.।६। चेतनत्व, जिससे वस्तुका अनुभव होता है। यतः ॥ चैतन्यमनुभूतिः स्यात् सक्रियारू पमेव च ॥ क्रिया मनोवचःकायेष्वन्विता वर्त्तते ध्रुवम् ॥ १॥ भावार्थ:-चैतन्य जो है, सो अनुभूति है, और सक्रियारूप है, और क्रिया निश्चयकरके मनवचनकाया अन्वित होके वर्ते है.।७। अचेतनस्व, ज्ञानरहितवस्तु. । ८। मूर्तत्व, रूपरसगंधस्पर्शवाला. । ९। अमूर्त्तत्व, रूपादिरहित. । १०। __ अथ द्रव्योंके विशेष गुण लिखते हैं. ज्ञान (१), दर्शन (२), सुख (३), वीर्य (४), स्पर्श (५), रस (६), गंध (७), वर्ण (८), गतिहेतुत्व (९), स्थितिहेतुत्व (१०), अवगाहनहेतुत्व (११), वर्तनाहेतुत्व (१२), चेतनत्व (१३), अचेतनत्व (१४), मूर्त्तत्व (१५), अनूतत्व (१६). येह सोलां विशेष गुण हैं. इनमेंसें जीवके १।२।३।४। १३ । १६ । येह ६ गुण है. पुद्गलके ५।६।७।८।१४।१५। येह ६ गुण है. धर्मास्तिकायके ९।१४।१६॥ येह ३ गुण है. अधर्मास्थिकायके १० । १४ । १६ । येह ३ गुण है. आकाशास्तिकायके ११ । १४ । १६। येह ३ गुण है. कालके १२ ॥१४।१६। येह ३ गुण है. अंतके जे चार गुण है, वे स्वजातिकी अपेक्षा तो सामान्य गुण है, और विजातिकी अपेक्षा विशेष गुण हैं. इनका अर्थ प्रकट है, इसवास्ते नही लिखा है. __ अथ प्रसंगसें जीवादि द्रव्योंके स्वभाव लिखते हैं. अस्तिखभाव (१), नास्तिखभाव (२), नित्यस्वभाव (३), अनित्यस्वभाव (४), एकस्वभाव (५), अनेकस्वभाव (६), भेदस्वभाव (७), अभेदस्वभाव (८), भव्यस्वभाव (९), अभव्यस्वभाव (१०), परमस्वभाव (११), यह इग्यारें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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