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षटूत्रिंशः स्तम्भः
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कथनमात्रही है. क्योंकि, सावयवपणा, और कार्यपणा, कथंचित् आत्माविषे हम मानतेही हैं. परंतु ऐसें माननेसें, घटादिवत्, पहिले प्रसिद्ध समानजातीयअवयवोंकरके आरभ्यत्वकी प्रसक्ति नही है. क्योंकि, नही निश्चय, घटादिकोंविषे भी, कार्यसें प्रथम प्रसिद्ध समानजातीय कपालसंयोगकरके आरभ्यत्व देखा है. कुंभकारादि व्यापारसंयुक्त माटीके पिंडसे, प्रथमही, घटके पृथुबुनोदरादि आकारकी उत्पत्ति प्रतीत होनेसें. द्रव्यकाही, पूर्वाकार परित्यागनेसें, उत्तराकार परिणाम होना, सोही, कार्यत्व है. सो कार्यत्व, बाहिरकीतरें अभ्यंतर भी अनुभूतही है. और पटादिकोंविषे स्वअवयवसंयोगपूर्वक कार्यत्वके देखनेसें सर्वजगे तैसें होना चाहिये, यह युक्त नही है. क्योंकि, नही तो, काष्ठविषे लोहलेख्यत्वके उपलंभ होनेसें, वज्र में भी लोहलेख्यत्वका प्रसंग होवेगा. और प्रमाणबाधन तो दोनोंजगे तुल्य है. और उक्तलक्षणकार्यत्व अंगीकार करें भी, आत्माको, अनित्यत्वके प्रसंग, प्रतिसंधान ( स्मरण ) के अभावकी प्राप्ति नही होती है. क्योंकि, कथंचित् अनित्यत्वके हुएही, इस संधानको, उपपद्यमान होनेसें और जो यह कहा कि, शरीरपरिमाण आत्माके हुए, आत्माको मूर्त्तत्वकी प्राप्ति होवेगी इत्यादि - तहां मूर्त्तत्व किसको कहते हो ! असर्वगतद्रव्यपरिमाणको, वा रूपादिमत्वको ? तिनमें आद्य पक्ष तो, दोषपोषकेतांइ नही है, संमत होनेसें. और दूसरा पक्ष तो, अयुक्त है, व्याप्ति के अभावसें. क्योंकि, जो असर्वगत है, सो नियमकरके रूपादिमत् है, ऐसा अविनाभाव नही है. क्योंकि, मनको असर्वगत होनेसें भी, रूपादिमत्व के अभाव सें. इसवास्ते आत्माकी शरीरविषे अनुप्रवेशकी अनुपपत्ति नही है, जिसवास्ते शरीर निरात्मक होजावे. असर्वगत द्रव्यपरिमाणलक्षणमूर्त्तत्वको मनोवत् प्रवेशका अप्रतिबंधक होनेसें, रूपादिमत्वलक्षण मूर्त्तत्वसहित जलादिकोंका भी भस्मादिविषे अनुप्रवेश नही निषेधीये हैं, और मूर्त्तत्व सें रहित भी आत्माका प्रवेश शरीर में प्रतिषेध करते हो तो, इससें अधिक और कौनसा आश्चर्य है ?
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