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________________ ६७८ तत्त्वनिर्णयप्रासाद अन्य स्मरण करनेको समर्थ होता है, अतिप्रसंग होनेसें. तिसकरके आरभ्यत्वके हुए, इस आत्माका, घटवत्, अवयवक्रियासें विभाग होनेसें संयोगविनाश विनाश होवेगा. और शरीरपरिमाणत्व आत्माके हुए, आत्माको मूर्त्तत्वकी प्राप्ति होनेसें आत्माका शरीरमें प्रवेश नही होवेगा, मूर्त में मूर्त्तके प्रवेशका विरोध होनेसें तब तो, निरात्मकही, संपूर्ण शरीर, होवेगा. अथवा आत्माको शरीरपरिमाणत्वके हुए, बालशरीरपरिमाणवाले आत्माको, युवशरीरपरिमाण अंगीकार कैसें होवे ? बालपरिमाणको त्यागके, वा न त्यागके ? जेकर त्यागके, तब तो, शरीरवत्, आत्माको अनित्यत्वका प्रसंग होनेसें, परलोकादिकके अभावका प्रसंग होवेगा. जेकर विनाही त्यागनेसें, तब तो, पूर्वपरिमाणके न त्यागनेसें, शरीरवत्, आत्माको उत्तरपरिमाणकी उपपत्ति नही होवेगी तथा हे जैन ! तू आत्माको शरीरपरिमाण कहता है, तब तो, शरीरके खंडन करनेसें, तिस आत्माका खंडन, क्यों नही होता है ? सो कहो. उत्तरपक्ष:- हे वादिन् ! जो तूने कहा कि, आत्मा के सर्वव्यापीके अभा वसं इत्यादि-सो असत्य है. क्योंकि, जो जिसकरके संयुक्त है, सोही तिसप्रति उपसर्पण करता है, ऐसा नियम नही है. चमकपाषाणकरके, लोहा संयुक्त नही भी है, तो भी तिसके आकर्षण करनेकी उपलब्धिसें. पूर्वपक्ष:- जेकर असंयुक्तका भी आकर्षण होवे, तब तो, तिसके शरीरारंभप्रति, एकमुखी हुए, त्रिभुवन उदरविवरवर्त्ति परमाणुओंका उपसर्पण प्रसंग होनेसें, न जाने कितने परिमाणवाला तिसका शरीर होवेगा ? उत्तरपक्षः - संयुक्त के भी, आकर्षण में यही दोष क्यों नही होवेगा ? आत्माको व्यापक होनेकरके, सकलपरमाणुओंका तिस आत्मा के माध संयोग होनेसें. पूर्वपक्ष:-संयोग के अविशेषसें, अदृष्टके वशसें विवक्षितशरीरके उत्पादन करनेमें, योग्य नियतही परमाणु, उपसर्पण करते हैं. उतरपक्षः - तब तो हमारे पक्षमें भी तुल्य है । और जो कहा कि, सावयवशरीरके, प्रतिअवयवमें, प्रवेश करता आत्मा इत्यादि. सो भी, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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