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________________ ६८० तत्वनिर्णयप्रासादऔर जो यह कहा कि, देहपरिमाणत्वके हुए, आत्माको बालशरीरपरिमाण त्यागके, इत्यादि-सो भी, अयुक्त है. क्योंकि, युवशरीरपरिमाणअवस्थाके विषे, आत्माको वालशरीरपारमाणके परित्यागे हुए, आत्माका सर्वथा विनाशके असंभव होनेसें; विफण अवस्थाके उत्पाद हुए सर्पवत्. तब तो, कैसे परलोकके अभावका अनुषंग होवे? पर्यायसे आत्माके अनि त्यत्वके हुए भी, द्रव्यसें नित्यत्व होनेसें.। और जो यह कहा कि, यदि आत्माको शरीरपरिमाणता है, तब तो शरीरके खंडन करनेसें इत्यादि-सो भी, ठीक नहीं है. क्योंकि, शरीरके खंडनेसें कथंचित् आत्माका खंडन भी इष्ट होनेसें. शरीरसंबद्ध आत्मप्रदेशोंसेंही, कितनेक आत्मप्रदेशोंका खंडितशरिप्रदेशाविषे अवस्थान है, सोही, आत्माका किसी प्रकारसें खंडन है; नतु सर्व प्रकारसें. सो यहां विद्यमानही है. अन्यथा तो, शरीरसें पृथग्भूत अवयवके कंपनकी उपलब्धि नही होवेगी. और यह भी नहीं है कि, खंडित अवयव प्रविष्टआत्मप्रदेशको पृथग् आत्मतत्वका प्रसंग है; उन आत्मप्रदेशोंका खंडित अवयवसें निकलके पुनः तिसही शरीरमें प्रवेश होनेसें. और यह भी नहीं है कि, एकत्र संतानविषे अनेकात्माका प्रसंग होवेगा. क्योंकि, अनेकार्थप्रतिभासि ज्ञानोंका एक प्रमाताके आधारकरके प्रतिभासके अभावका प्रसंग होनेसें, शरीरांतर रहे हुए, अनेक ज्ञानावसेय अर्थ संवित्तिवत्. पूर्वपक्षः-किसतरें खंडिताखंडित अवयवोंका पीछेसें फिर संघटन होवे है? उत्तरपक्षः-एकांत सर्वथाछेदके अनंगीकारसें, पद्मनालतंतुवत्, कथंचित् अच्छेदके भी स्वीकारसें. और तथाविध अदृष्टके वशसें उनका संघटन भी फिर अविरुद्धही है. इसवास्ते शरीरपरिमाणही आत्मा अंगी: कार करनेयोग्य है, नतु सर्वव्यापक. प्रयोग ऐसे है. आत्मा व्यापक नही है, चेतनत्व होनेसें, जो सर्वव्यापक है, सो चेतन नहीं है, जैसे आकाश, और आत्मा चेतन है, तिसवास्ते व्यापक नही. आत्माके अठया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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