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________________ ६४० तत्त्वनिर्णयप्रासाद तरें व्यासजी, शंकरस्वामी आदिकोंने लिखा है, वैसाही खंडनपूर्वक, छ. त्तीस (३६) मे स्तंभमें लिखेंगे. केरलदेशके एक नगरमें सर्वज्ञनामा ब्राह्मण, और कामाक्षी नामा तिसकी भार्या रहते थे; उनोंकी एक विशिष्टानामा पुत्री, जब आठवर्षकी हुई, तव तिसके पिताने विश्वजित्नामा ब्राह्मणके पुत्रको विवाह दी. विशिष्टा, शिवके आराधनमें तत्पर, और विवेकवाली थी. ऐसी विशिष्टाको त्यागके तिसका पति विश्वजित्, अरण्यमें तप करनेकेवास्ते निश्चय करता हुआ; तबसें विशिष्टा अकेली रहगई. और महादेवको पूजाभक्तिसें अतिप्रसन्न करती भई. तब महादेव सर्वव्यापी है, तो भी, उसके वदनकमलमें प्रवेश करके उसके उदरमें पुत्ररूप गर्भपणे उत्पन्न हुआ. गर्भकालसें पीछे जन्म हुआ, पुत्रका नाम शंकर रक्खा. ॥ इतिशंकरस्वामीजन्मवर्णनम् ॥ बाल्यावस्थामेंही शकरने गुरुमुखसें सर्व विद्या पढली. पीछे शंकरस्वामी माताकी आज्ञा लेके नर्मदा नदीके किनारेपर वनमें जाकर गोविंदनाथ संन्यासीके शिष्य हुए; तहांसें चलके शंकरस्वामीने काशीमें आके कितनेक दिन निवास किया, और अपनी ब्रह्मविद्याका, सुननेवालोंको उपदेश करते रहे; तहां उनके कितनेही शिष्य होते भये. तहांसें चलके हिमालयपर्वतके बदरीआश्रममें जा रहे; तहां वेदांत, उपनिषद्, गीतादिका भाष्य रचते हुए, और शिष्योंको अपने रचे हुए भाष्यका पठन कराते हुए. तदपीछे शारीरिकसूत्रोंका भाष्य रचा, तदपीछे कुमारिलभट्टपासवें वार्तिक करवानेकी इच्छा उत्पन्न भई, तब हिमालयसे दक्षिण दिशाको चले. प्रथम कुमारिलभट्टके जीतनेवास्ते प्रयाग आये, तहां त्रिवे. णीस्नान करके शिष्योंसहित किनारेपर बैठे. तब लोकोंके मुखसें ऐसी वार्ता सुनी, "जिसने पर्वतसें छलांक (फलांग)मारके वेदवाणीकोंप्रामाण्य सिद्ध करी, सो यह कुमारिल, सर्व वेदार्थोंका जाननेवाला, अपना दोष दूरकरनेकेवास्ते तुषाग्निकरके दग्ध होता है. सर्व शरीर तो जलगया है, एक मुख शेष रहता है."-यह सुनके संकरस्वामी तुरत वहां गए, और तुषराशिमें बैठे, कुमारिल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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