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________________ पंचत्रिंशःस्तम्भः ६३९ ९. चारित्रार्य-इनके भेद श्रीप्रज्ञापनासूत्रमें अनेक प्रकारके करे हैं. परंतु सामान्य प्रकारसें जो आर्हिसा १, अनृत २, अस्तेय ३, ब्रह्मचर्य ४, अकिंचिन्य ५, इन पांचों महावतोंका पालक होवे, सो चारित्रार्य जानना.॥९॥ येह नवभेद आर्योंके हैं. यह आर्यपद जैनमतके शास्त्रोंमें हजारों जगे उच्चारनेमें आताहै. जैसें ॥ “॥ अजसुहम्मे अजजंबू अजपप्भव इत्यादि॥” । एक कल्पाध्ययनमेंही सैंकडों जगे उच्चार हैं. और जैनमतकी साध्वीयोंका नाम भी, आर्या है; इसवास्ते यह आर्य शब्द श्रेष्ठताका वाचक है. सांप्रतिकालमें दयानंदिये (दयानंदमतानुयायी) भी, अपने आपको आर्य समाजी कहलाते हैं. परंतु जो अर्थ, आर्यपदका हम ऊपर लिख आए हैं, सो जिसमें घटे सोही आर्यपदवाच्य है, अन्य नहीं है. । इति संक्षेपतः कतिपय शंकानिराकरणं समाप्तम् ॥ इत्याचार्यश्रीमद्विजयानंदसूरिविरचिते तत्वनिर्ण यप्रासादे क्तुस्त्रिंशः स्तम्भः ॥ ३४ ॥ ॥ अथ पंचत्रिंशस्तम्भारम्भः॥ विदित हो कि, व्यास सूत्रोंमें जैनमतके कहे तत्त्वोंका तीन सूत्रोंमें खंडन किया है, उन सूत्रोंपर शंकरस्वामीने भाष्य रचके तिसमें विस्तारसें पूर्वोक्त तत्त्वोंका खंडन लिखा है. बहुतसें जैनमती यह भी नही जानते हैं कि, शंकरखामी कौन थे ? कब हुए हैं ? और उनोंने हमारे मतका किस रीतिसें खंडन किया है ? और बहुत ब्राह्मण लोक शंकरस्वामीने जैनीयोंके बेडे जहाज भरवाके डुबवा दिये थे, इत्यादि अनेक मिथ्या बातें कर रहे हैं, वे सर्व मालुम हो जावेंगी. इसवास्ते इस पंचत्रिंश (३५) स्तंभमें हम शंकरस्वामीकी उत्पत्ति, शंकरस्वामीके शिष्य अनंतानंदगिरिकृत शंकरविजय, और माधवाचार्यकृत दूसरी शंकरविजय ग्रंथानुसार लिखते हैं. और जिन जैनमतके तत्वोंका खंडन जिस. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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