SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 743
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६३८ तत्त्वनिर्णयप्रासाद. उक्तंच ॥ बालस्त्रीमूढमुर्खाणां नृणां चारिकांक्षिणाम् ॥ अनुग्रहार्थ तत्त्वज्ञैः सिहांतः प्राकृतः कृतः ॥ १॥ एक अन्यबात भी है कि, प्राकृतमें भी प्रवचनका निबंध दृष्टेष्ट अविरोधी है, तो फिर, कैसें अवांतर परिकल्पनाकी शंका उत्पन्न होवे ? क्योंकि, सर्वज्ञके विना अन्य कोइ भी दृष्टेष्ट अविरोधवचन, नही कह सकता है. यह निःशंकित नामा प्रथम आचार है।।१। निःकांक्षित, वांछा करनेका नाम कांक्षा है, सो कांक्षा जिसथकी नीकल गइ है, सो कहिये निःकांक्षित, अर्थात् देश, सर्व कांक्षारहित होवे; तहां देशकांक्षा, एक दिगंबरादि दर्शनकी वांछा करे; और सर्वकांक्षा, सर्वही दर्शन अच्छे हैं, ऐसें चिंतन करना; येह दोनों प्रकारकी कांक्षा करनी ठीक नहीं है. क्योंकि, शेष दर्शनोंमें षट् जीवनिकायपीडासें, और असत् प्र. रूपणाके होनेसें; इति नि:कांक्षितनामा दूसरा आचार. । २। विचिकित्सा, मतिभ्रम फलप्रति संशय करना, जिनशासनतो अच्छा है, किंतु प्रवृत्त हुए मुझको इस कर्त्तव्यसें फल होवेगा, वा नहीं ? क्योंकि, कृषीकर्मादिक्रियामें दोनोंही देखने में आते हैं, इत्यादि विकल्परहित होवे. क्योंकि, नहीं अविकल उपायके हुए उपेयकी प्राप्ति नही होती है, अ. पितु होवेही है; ऐसा निश्चय जो होना, सो निर्विचिकित्स नामा तीसरा आचार जानना. । ३ । अमूढदृष्टि, बाल तपस्वीके तप, विद्या, अतिशयको देखनेसें मूढस्वभावसे चलचित्त न होवे; सुलसां श्राविकावत्, सो अमूढदृष्टिनामा चौथा आचार. । ४ । समानधार्मिक जनोंके गुणोंकी प्रशंसा करके उनकी वृद्धि करनी, सो उपबृंहणानामा पांचमा आचार. । ५। धर्मसें सीदाते (डोलतेहूए) को फिर धर्ममेंही स्थापन करना, सो स्थिरीकरणनामा छट्टा आचार.। ६। समानधार्मिक जनोंको अन्नपाणी वस्त्रादिकोंसें उपकार करना, सो वात्सल्यतानामा सातमा आचार. । ७॥ प्रभावना, धर्मकथा, धर्ममहोत्सवादिकोंकरके तीर्थका प्रकाश करना, उन्नति करनी, सो प्रभावना नामा आठमा आचार.। ८ । इन आठों आचारोंसहित सम्यग्दर्शनसंयुक्त जो होवे सो दर्शनार्यः ॥ ८॥ HHHHHHI Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy