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पंचत्रिंशःस्तम्भः। को देखा, और प्रभाकरादि शिष्यवर्ग रुदन कर रहे हैं. कुमारिलने अदृष्ट, अश्रुतपूर्व, शंकरस्वामीको देखके बडा आनंद पाया. तब शंकरस्वामीने उसको अपना भाष्य दिखलाया, तब कुमारिलने कहा तुमारा भाष्य तो ठीक है, परंतु इस भाष्यके प्रथमाध्यायमें अष्टसहस्र (८०००) वार्तिका चाहिये. जेकर मैने दीक्षा नही लि होती तो, मैं इसकी वार्त्तिका करता; परंतु प्रथम तो मैं, बौद्धोंसें वादमें हारा, और उनकाही शरण मैनें लिया; तब मैं उनका सिद्धांत सुनता रहा. कुशाग्रीयबुद्धिवाले बौद्धोंने वैदिकमत खंडन करा, तब मेरी आंखोंसें आंसु गिरे, और पासवालोंने मुझे देखा. तबसें उनोनें मेरेपरसें विश्वास छोड दीया कि, यह अपने मतके माननेवाला नहीं है, हमने विरोधीमतवाले ब्राह्मणको पढाया, और इसने हमारे मतका तत्त्व जान लिया, इसवास्ते इसको उपद्रव करना चाहिये. ऐसी सलाह करके बौद्धोंने मुझको उच्चप्रासादसे नीचे गिराया, तब मैं ऊपर चढ आया, और मुखसे कहा कि, यदि श्रुतियां सत्य है तो, मैं, गिरता हुआ भी, जीता रहूं. मेरे जीते रहनेसें श्रुतियां सत्य हो गई, परंतु गिरनेसें मेरी एक आंख फुट गई, सो तो, विधिकी कल्पना है. एक अक्षरका प्रदाता गुरु होता है, शास्त्र पढानेवालेका तो क्याही कहना है ? मैंने सर्वज्ञ बुद्धगुरुपाससे शास्त्र पढके उसकाही बुरा किया, उसके कुलकाही प्रथम नाश किया, और जैमनिमत माननेसें मैंने ईश्वरका खंडन किया, अर्थात् ईश्वर जगत्कर्ता सर्वज्ञ नही है, ऐसा सिद्ध किया. इन दोनों दूषणोंके वास्ते, यह प्रायश्चित्त मैंने किया है, परंतु, तूं, मेरे बहनोइ, माहिष्मतिनगरनिवासी, मंडनमिश्रको जीत लेवेगा तो, तेरा मत सर्वजगे प्रचलित होवेगा. इतना कहकर भट्ट मृत्युको प्राप्त हुआ.*
* आनंदगिरिकृत शंकरविजयके ५५ प्रकरणमें लिखा है । तब परमगुरु, भट्टाचार्यको देखके कहता हुआ, हे द्विज ! तूने अज्ञानकरके यह अवस्था प्राप्त करी है, हे मूढ ! तूं गूढ अर्थवाले व्याख्यानोंको नही जानता है. यतः ।
हंताचेन्मन्यते हंतु हतश्चेन्मन्यते हतम् ।।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हंति न हन्यते ॥ इतिश्रुतेः । मारनेवालेको जो हंता-हिंसक मानता है, और हतको मरा मानता है, वे दोनोंही अज्ञ है.
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