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तत्त्वनिर्णयप्रासाद
लिखी है, ऐसें लेखको वांचके कितनेक लोक, जो अंग्रेजी फारसी पढे हुए हैं, वे उपहास्य करते हैं; सो ऐसी अवगाहना, और आयुको जैनमतवाले क्योंकर सत्य मानते हैं ?
उत्तरः- हे भव्य ! जबतक पक्षपात छोडके सूक्ष्मबुद्धि विचार नही करते हैं, तबतक वस्तुके तत्त्वों नही प्राप्त होते हैं. क्योंकि, पृथिवीमें अधिक रस होनेसें तिस पृथिवीकी वनस्पतिमें भी अधिक रसवीर्य होता है, और तिस वनस्पतिके खानेवाले पुरुषादिकोंमें अधिक बल होता है, और तिनके शरीर में वीर्य धातु भी अधिक होता है, और जिसका वीर्य अधिक होता है, तिसका संतान भी कदावर ( बडी अवगाहनावाला ) होता है, हाथीवत् । तथा पंजाब की भूमिसें गुजरात देशकी भूमि रसमें न्यून है, इसवास्ते पंजाबकी वनस्पति खानेवाले पंजाबीयोंका शरीर गुजरातीयोंकी अपेक्षा कदावर और बलवान् है; और पंजाबसें काबुलकी भूमि अधिक रसवीर्यवाली है, इसवास्ते वहांकी मेवादि वनस्पति हिंदुस्थानकी अपेक्षा बहुत रसवीर्यवाली होनेसें, वहांके पुरुष भी कदावर, और अधिक बलवान् है. इस लिखनेका यह प्रयोजन है कि, जैनमतके सिद्धांतानुसार वर्त्तमानकाल ' अवसप्पिणी' चलता है, अर्थात् जिस काल में समय समय भूमि आदि पदार्थोंका अच्छा वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, घटता जावे तिसको अवसर्पिणी काल कहते हैं.
यदुक्तं पंचकल्पभाष्ये ॥
भणियं च दुसमाए गामा होहिंति ऊमसाणसमा ॥
इय खेत्तगुणा हाणी कालेवि उ होहि इमा हाणि ॥ १ ॥ समये २ त परिहायंते उ वण्णमाईया ||
दवाई पजाया होरत्तं तत्तियं चैव ॥ २ ॥ दूसमअणुभावेणं साहूजोग्गा उ दुलहा खेत्ता ॥ कालेवि यदुभिक्खा अभिक्खणं हुंति डमरा य ॥ ३ ॥
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