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________________ चतुस्त्रिंशः स्तम्भः । ६२३ इन पूर्वोक्त षट् (६) गणोंसेंसें १ । ४ । ६ गणोंके, उनके कुलोंके, और उनकी शाखायोंके नाम, मथुराके शिलालेखों में लिखे हैं. और देवसेन भट्टारक अपने रचे दर्शनसारग्रंथ में लिखते हैं कि, विक्रमराजाके मरणपीछे एक सौ छत्तीस वर्ष गए सोरठदेशके वल्लभी नगरमें श्वेतांवर संघ उत्पन्न हुआ; तथा मूलसंघ, नंद्याम्नाय, सरस्वतिगच्छ, बलात्कारगण, इन चारों नामोंकी मथुराके शिलालेखों में गंध भी नही है; जेकर श्वेतांबरीय शास्त्रोंके पूर्वोक्त गणोंके लेख कल्पित मानें, तो भूमिमेंसें वे लेख कैसें निकलते ? इसवास्ते श्वेतांबरीय शास्त्रोंके लेख सत्य सिद्ध होते हैं. और दिगंबरोंके लेख मिथ्या सिद्ध होते हैं. क्योंकि, श्वेतांबर बाबत देवसेनके लेखसें मथुराके शिलालेख प्राचीनतर है; इसवास्ते श्वेतांबरीय शास्त्रों में जे जे गण कुल शाखाके नाम लिखे हैं, वे सत्य हैं. और जे जे दिगंबरोंने मूलसंघ १, नंद्याम्नाय २, सरस्वतिगच्छ ३, बलात्कारगण ४, लिखे हैं, वे नवीन कल्पित सिद्ध होते हैं. जब श्वेतांबरमतकी सत्यता की गवाही भूमिके शिलालेखही देते हैं, तब तो, प्रेक्षावान्को तिसकोही सत्यकरके मानना चाहिये. ॥ ॥ इति प्रसंगतः संक्षेपतो दिगंबर मतसमालोचनं समाप्तम् ॥ ॥ इत्याचार्यश्रीमद्विजयानंद सूरिविरचिते तत्त्वनिर्णयप्रासादे जैनमतस्य प्राचीनताबौद्धमतान्यतावर्णनो नाम त्रयस्त्रिंशः स्तम्भः ॥ ३३ ॥ ॥ अथचतुस्त्रिंशस्तम्भारम्भः ॥ तेतीसमे स्तंभ में जैनमतकी प्राचीनताका, और बौद्धमतसें पृथक्ताका वर्णन कीया अब इस चौतीसमे स्तंभ में जैनमत कितनी बातेंपर आधुनिक कितनेक पंडिताभिमानी शंका करते हैं, उनके उत्तर लिखते हैं. प्रश्नः - जैनमतमें ऋषभदेव अरिहंतकी जो पांचसौ (५००, ) धनुषप्रमाण अवगाहना लिखि है, ओर चौरासी लक्ष ( ८४००००० ) पूर्वकी आयु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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