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________________ चतुस्त्रिंशः स्तम्भः । दूसमअणुभावेण य परिहाणी होहि ओसहिबलाणं ॥ तेणं मणुयापि उ आउगमेहादिपरिहाणी ॥ ४ ॥ इत्यादि ॥ भाषार्थः - कहा है समनामा अवसर्पिणीकालके पांचमे आरे (हिस्से)में ग्राम प्रायः मसाणसरिखे होवेंगे, येह क्षेत्रके गुणोंकी हानी जाननी और कालमें भी यह वक्ष्यमाण हानी होवेगी, सोही बतावे हैं. समय समय में अनंते अनंते द्रव्यपर्यायोंके वर्ण आदिशब्दसें रस, गंध, स्पर्श, जे जे शुभ शुभतर हैं उनोंकी हानी होवेगी, परंतु अहो - रात्र तावन्मात्रही रहेगा, इसकालके प्रभावसें साधुयोंके योग्य क्षेत्र प्रायः दुर्लभ होवेंगे, और सुकालमें भी साधुयों के योग्य भिक्षा दुर्लभ होवेगी, दुर्भिक्ष और राज्यादि उपद्रव वारंवार होयेंगे तथा दूसमकालके प्रभावसें औषधि अन्नादिकोंके बलकी तथा रसादिककी हानी होवेगी, और तिसकरके मनुष्यों के आयु बुद्धि, आदिशब्द से अवगाहना बलपराक्रमाfasia भी हानी होवेगी, इत्यादि अवसर्पिणीका वर्णन किया है: सो अवसर्पिणीकाल प्रथम आरेसें प्रारंभ हुआ है, तबसे भूमिआदि पदार्थों के रस- वीर्य घटने पुरुषादिककी अवगाहना आयु भी घटने लगी; सो ears, तथा आगे कितनेक कालतां घटती जायगी. कमसे घटते घटते हमारे समयतक असंख्य वर्ष गुजर चुके हैं; लाखों करोडों वर्षोंके व्यतीत होनेसें थोडी २ घटते २ हमारे समय में थोडी अवगाहना आयुरह गई है; इसवास्ते असंख्य काल पहिले बडी अवगाहनाका होना संभवे है. इस कालमें जो नही मानते हैं, वे क्या, असंख्य काल असंख्य वर्ष अतीतकाल का पूरा पूरा स्वरूप देख आए हैं, जो नही मानते हैं ? अब अतीतकाल में पुरुषादिकों के शरीर वडे २ कद्दावर थे, इस कथन ऊपर हम थोडासा प्रमाण भी लिखते हैं । सन १८५० ई० में मारुओं नजदीक, भूमि में खोदते हुए, राक्षसी कदके मनुष्यके हाड भूमिमेसें निकलेथे; उनमें जवाडेका हाड, आदमीके पगजितना लंबा था, और एक बुशल अर्थात् चौबीस (२४) सेर पक्के गेहूं तिसकी खोपरीमें समा सक्थे, एक २ दांतका वजन पडणा आंउस ( कुछक न्यून दो तोले ) Jain Education International ६२५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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