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त्रयस्त्रिंशःस्तम्भः।
६१३ श्रद्धाकरके उपाश्रय प्राप्त कर देना ४; च शब्द वक्ष्यमाण गृहस्थधर्मके समुच्चय वास्ते है.॥ तथा। राजवार्तिकमेंही । यताः॥ "धर्मोपकरणानां ग्रहणविसर्जनं प्रति यतनमादाननिक्षेपणासमितिः॥७॥” धर्माविरोधिनां परानुपरोधिनां द्रव्याणां ज्ञानादिसाधनानां ग्रहणे विसर्जने च निरीक्ष्य प्रपूज्य प्रवर्तनमादाननिक्षेपणासमितिः॥ भाषार्थः-धर्मके अविरोधी, परके अनुपरोधी, ज्ञानादिके साधन, ऐसें द्रव्योंके ग्रहणमें और त्यागमें देखके और प्रमार्जन करके प्रवर्त्तना, सो आदानानक्षेपणासमिति है. ॥ तथा राजवार्तिकमेंही । यतः ॥ "॥ संसक्तानपानोपकरणादिविभजनं विवेकः ॥” संसक्तानामन्नपानोपकरणादीनां विभजनं विवेक इत्युच्यते ॥
भाषार्थः-संसक्त जीवोत्पत्तिवाले अन्न, पाणी, उपकारणादिकोंका त्याग करना (परठना), सो विवेक कहिये हैं.॥
तथा राजवार्त्तिकमेंही पांच प्रकारके निर्मंथोंका स्वरूप लिखा है, तिनमें बकुशका स्वरूप ऐसें लिखा है. । यतः॥
“॥ बकुशो द्विविधः उपकरणबकुशः शरीरबकुशश्चेति ॥" तत्र उपकरणाभिष्वक्तचित्तो विविधविचित्रपरिग्रहयुक्तः बहु विशेषयुक्तोपकरणकांक्षी तत्संस्कारप्रतीकारसेवी भिक्षुरुपकरणबकुशो भवति शरीरसंस्कारसेवी शरीरबकुशः ॥
भाषार्थः-बकुश दोप्रकारका होता है, उपकरणवकुश ?, और शरीरबकुश २; तिनमें जो उपकरणोंमें रक्त चित्तवाला नाना प्रकारके विचित्र परिग्रहयुक्त, बहुत सुंदर उपकरणोंका इच्छक, और तिन उपकरणोंका संस्कार प्रतिकार करनेवाला, भिक्षु साध, सो उपकरणबकुश होता है; और शरीरका संस्कार करनेवाला, शरीरबकुश होता है. ॥
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