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________________ त्रयस्त्रिंशःस्तम्भः । ६०९ भावार्थ:-पिच्छादिकोंकरके धर्मोपकरणोंको प्रतिलेखके अंगीकार करने, और रखने, सो सम्यग् आदानसमिति है. । यहां पीछी आदि लिखा है, सो आदिशब्दसें क्या क्या ग्रहण करना ? और प्रतिलेखके ग्रहण करने, रखने वे धर्मोपकरण, कौनकौनसे हैं ? तथा पूर्वोक्त तत्वार्थसूत्रावचूरिमेंही ॥ “॥ संयमश्रुतप्रतिसेवनातीर्थलिंगलेश्योपपादप्रस्थानविकल्पतः साध्याः॥” इस सूचके अधिकारमें लिखा है.। तथाहि ॥ “॥ लिंगं द्विभेदं द्रव्यभावलिंगभेदात् तत्र भावलिंगिनः पंचप्रकारा अपि निर्ग्रथा भवंति द्रव्यलिंगिनः असमर्था महर्षयः शीतकालादौ कंबलादिकं गृहत्विा न प्रक्षालयंते न सीव्यति न प्रयत्नादिकं कुर्वति अपरकाले परिहरंतीति भगवत्याराधना प्रोक्ताभिप्रायेणोपकरणकुशीलापेक्षया वक्तव्यम् ॥” भाषार्थः-लिंग दो प्रकारके हैं, द्रव्यलिंग और भावलिंग; तिनमें भावलिंगी पांचप्रकारके निग्रंथ होते हैं, और द्रव्यलिंगी असमर्थ महाऋषि हैं. जे शीतकालादिमें कंबलादिकों ग्रहण करके धोवे नहीं हैं, सीवते नही हैं, प्रयनादि करते नही हैं, और शीतकालके दूर हुए त्याग करते हैं; इति । यह कथन, भगवत्याराधनामें कथन करे हुए अभिप्रायकरके उपकरण कुशीलकी अपेक्षा जाणना.॥ तथा प्रवचनसारवृत्तिमें उपधिका भेद कहा है.। यतः॥ छेदो जेण ण विज्जदि गहणविसग्गेसु सेवमाणस्स ॥ समणो तेणिह वहदि दुक्कालं खेत्तं वियाणित्ता॥ भाषार्थः-जिसके करनेसें न होवे छेद, लेने और छोडनेमें, इसरीतिसे उपधि आहार निहार कारणे सेवना करतेको, तिस्सें तिसमें श्रमणपणा वर्ने हैं, दुषमकालको, और क्षेत्रको जानके.॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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