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तत्त्वनिर्णयप्रासादतथा प्रवचनसारकी वृत्तिमें जिनेश्वरके अधिकारमें साधुकी उपाध धर्मध्वजकरके कही है. । तथाहि ॥
"॥ न विद्यते लिंगानां धर्मध्वजानां ग्रहणं यस्यति बहिरं
गयतिलिंगाभावस्यति॥" भाषार्थः-नहीं है लिंग धर्मध्वजोंका ग्रहण जिस जिनेश्वरके, अर्थात् बहिरंगयतिलिंगका अभाव है. ॥ भावसंग्रहमें भी उपकरण विशेष कहे हैं। तथा च तत्पाठः॥
उवयरणं तं गहियं जेण ण भंगो हवेइ चरियस्स॥
गहियं पुत्थयवाणं जोगं जं जस्स तं तेण ॥ भाषार्थः-उपकरण सो ग्रहण करिये हैं, जिसके ग्रहण करनेसें चारित्रका भंग नही होता है; और ग्रहण करा पुस्तक पाना पुस्तकोपकरणादिभी, चारित्रका भंग नही करे हैं. क्योंकि, जो जिसके योग्य उपकरण हैं, सो तिसकेवास्ते ग्रहण करना है. ॥ _ कुंदकुंदमुनिकृत मूलाचारमें साधुकी उपधि प्रकटपणे कथन करी है.। तथाहि ॥
णाणुवाहं संजमुवहिं तउववहिमण्णमविउवहिं वा ॥
पयदं गहणिक्खेवो समिट्ठी आदाणनिक्खेवा ॥ भाषार्थः-ज्ञानोपधि, पुस्तकपट्टिकाबंधनादि; संयमोपधि, जिसके रखनेसें संयम पाल सकें; और तपोपधि, तथा अन्य प्रकारकी भी उपधि, इन पूर्वोक्त सर्व उपधियोंको प्रयत्नसें ग्रहण निक्षेप करना, तब संपूर्ण आदान निक्षेपसमिति होती है. ॥
और बोधपाहुडकी वृत्तिमें जिनमुद्राका कथन है. । यतः॥ शिरःकूर्चश्मश्रुलोचोमयूरपिच्छधरः कमंडलूकरः। अध:केशरक्षणं जिनमुद्रा सामान्यत इति ॥
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