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________________ त्रयस्त्रिंशास्तम्भः। ६०३ यः करोति सुधीर्भक्त्या पवित्रो धर्महेतवे ॥ स एकदर्शने शुद्धो महाभव्यो न संशयः॥२॥ यस्तस्या निंदकः पापी स निंद्यो जगति ध्रुवम् ॥ दुःखदारिद्यरोगादिदुर्गतिभाजनं भवेत् ॥ ३ ॥ इत्यादि. भावार्थ ऊपरही कह दिया है. ॥ इसवास्ते शास्त्रोक्त श्रद्धान करके कर्त्तव्यता युक्त है. क्योंकि, पुष्पादिकोंकरके जिनोंने श्रीजिनराजका पूजन करा है, तिनोंने तिसका फल स्वर्गलोकादि यावत् क्रम मोक्ष पाया है; तिसका कथायुक्त पुण्याश्रव, तथा व्रतकथाकोश, तथा आराधनाकथाकोश, तथा षट्कर्मोपदेशरत्नमालादि अनेक दिगंबरीय शास्त्रोंमें विस्तारसें वर्णन करा है. परंतु, किसी भी जैनमतके शास्त्रमें, ऐसा नहीं लिखा है कि, फलाने पुरुषने, वा अमुक स्त्रीने पुष्पादिकोंसें श्रीजिनराजकी पूजा करी, और तिस पूजाके प्रभावसे नरक प्राप्त करी!!! और श्वेतांबरमतके श्रीराजप्रश्नीय ( रायपसेणी) सूत्रमें तो, पूजाके पांच फल लिखे हैं:तथाहि ॥ "हियाए सुहाए खमाए निसेयसाए अणुगामित्ताए भविस्सइ॥" भावार्थ:-श्री जिनप्रतिमा पूजनेका फल पूजनेवालोंको हितकेवास्ते, सुखकेवास्ते, योग्यताके वास्ते, मोक्षके वास्ते, और जन्मांतरमें भी साथही आनेवाला है. ॥ इसवास्ते हठकदाग्रहको छोडके, शास्त्रोक्तही श्रद्धान करना योग्य है. यदि पूर्वोक्त फूल आदि द्रव्योंमें हिंसा मानके पूजन करना छोड देवोगे, तब तो, जिनप्रतिमा, जिनमंदिर, और गुलालवाडा, आदिका बनावना भी तुमकों छोड देना पडेगा, पूर्वोक्त कार्योसें अधिकतर (तुमारी श्रद्धामुजिब) सावद्यारंभ होनेसें. तथा प्रतिष्ठा भी, नही करनी चाहियेगी, सावद्यारंभ होनेसें. वाहजी वाह !! दिगंबर नाम धरायके भी, दिगंबराचार्यकाही कथन यथार्थ नहीं मानते हो, तो औरोंके कथनका तो क्याहि कहना है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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