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त्रयस्त्रिंशःस्तम्भः ।
जो कथन श्रीआदिपुराण में है. तथा पद्मनंदिआचार्यने, पद्मनंदिपञ्चीसीमें दीपककी श्रेणिकरके प्रभुको आरती करनी कही है. । तथा जिनसंहितामें, कार्त्तिकमासमें कृत्तिकानक्षत्र के संध्यासमयमें श्रीजिनमंदिरमें कार्त्तिकोत्सव करनेका विधि लिखा है: जिसमें लिखा है कि, यथोक्त विधिकरके नानाप्रकारके नैवेद्य जिनाग्रे धारण करने, और पूजास्थानादि कितनेक स्थानों में घृत पूरित कर्पूरकी बत्ती आदिके दीपक करने, और मंडप, दरवाजा, परिवारगृह, प्राकारतट, तोरणादि ऊर्ध्व अधः स्थानोंमें तैलादि पूरित दीपक करने, इत्यादि । तथा षट्कर्मोपदेशपरत्नमालामें, कर्पूरघृतादिकसें त्रिकाल दीपकपूजन लिखा है. इत्यादि अनेक शास्त्रोंमें पूजासंबंधि वर्णन है. इन सर्व लेखोंसें मालुम होता है कि, भगवान्की प्रतिमाको अंगीयांकी रचना नही करनी, यह केवल दिगंबर भाइयोंका हठही है; क्योंकि, चांदीकी, सुवर्णकी, मोतीकी, इत्यादि माला, और पुष्पका मुकुट, तथा सर्व शरीरकों विलेपन, इत्यादि करने तो ऊपर हम दिगंबरीय शास्त्रानुसारही लिख आए हैं. तो, श्वेतांबरकी अंगरचना, आभूषण पूजादिकोपरि क्यों संदेह करना चाहिये ? क्योंकि, जिसवास्ते श्वेतांबर पूर्वोक्त कार्य करते हैं, तिसहीवास्ते दिगंबरी भी करते हैं; सोही दिगंबरीय पुस्तकका पाठ थोडासा लिखते हैं. । तथाहि । “ बहुरि सोनारूपाके पुष्प, तथा मोतीनिकी मालाका चढावना कया हैं, सो जिनमंदिर मैं बहुद्रव्योपार्जनकै अर्थ, बहुरि अतिशोभाकै अर्थ, तथा प्रभावनाकी वृद्धिकै अर्थ, तथा उत्कर्षभावकी वृद्धिकै अर्थ, तथा बहुधनत्यागने के अर्थ, कृपणाई हरिवैकै अर्थ, तथा अतिउपमाकै अर्थ, इत्यादि ॥ " परंतु मालाको चरणोपरि चढावनी, और गले में नही पहिरावनी, यह भी मनः :कल्पित वृत्ति है. क्योंकि, माला गलेमेंही पहरी जाती है, सो आबालगोपालांगना में प्रसिद्ध है. यदि गलेमें पहिरावनेसें आभरण हो जावे हैं, इसवास्ते नही पहिरावनी चाहिए, ऐसें कहो तो, मुकुट भी तो आभरणही है, और मुकुटको मस्तकोपरि स्थापन करना दिगंबरीय शास्त्रमेंही लिखा है; जो पाठ पूर्व लिख आए हैं.
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