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या ऐसेंही इस संशय से भी बचाइये. आपके विना और किसके आगे हम अपने दिलकी बातें करें " ? तब श्रीविश्नचंदजीने श्री आत्मारामजीके पास अपने चेले चंपालालजी के प्रत्यक्ष सवाल जवाब करके चंपालालजीको ठीकठीक निश्चय करा दिया. उस दिनसें चंपालालजीने भी शुद्ध श्र
धारण की. बाद श्रीविश्नचंदजीने तो, लुधीयानासें विहार कर दिया, और रस्तेमें गुरूके झंडी आलाके श्रावक "" मोहरसींघ " " वशाखीमल मालकौंस " और जमृतसर वाले लाला " बूटेराय " ज्वहरीको प्रतिबोध किया. तथा साधु " हुकमचंदजी - हाकमरायजी " को भी श्री विश्नचंदजीने प्रतिबोध किया, इसतरह श्रीविश्नचंदजी, और चंपालालजी की मदद सें श्री आत्मारामजी की श्रद्वाके आदमियोंकी गिनती बढने लगी; और ढूंढक श्रद्धान रूप अजीर्ण दूर होता चला. अनुक्रमे श्रीविश्नचंदजी वगैरह पट्टी गाम में गये. वहां लाला " घसीटामल " जो पूज्य अमरसींहका मुख्य श्रावक था, तिसके साथ वातचीत हुई. जिससे लाला घसीटामल्लके दिलमें भी कितनेही शक पैदा होगये. तब घसीटामल्लने पूर्वोक्त संशयको दूर करके निर्णय करने के वास्ते, श्रीविश्नचंदजीके कहनेसें अपने पुत्र " अमीचंदजी" को व्याकरण पढाना शुरू कराया. जब वो पढकर तैयार होगया, तब घसीटामलने कहा कि, “पुत्र ! किसीका भी पक्षपात न करना. जो शास्त्रमें यथार्थ वर्णन होवे, सो तूं मुजे सुनाना. " तब अमीचंदने कहा कि, "पिताजी ! जो कुच्छ, श्रीमहाराज आत्मारामजी, तथा विश्नचंदजी वगैरह कहते हैं, सो सर्व ठीक ठीक है. और पूज्य अमरसींहजी, तथा उनके पक्षके ढूंढक साधुओं का जो कुच्छ कथन है, सो सर्व असत्य, और जैनमतसें विपरीत है. " यह सुनकर लाला घसीटामल्ल भी ढुंढकमतको छोडके शुद्ध श्रद्धान वाले होगये. पूर्वोक्त अमीचंद इस समय गुजरात - मारवाड - पंजाब वगैरह देशों में “पंडित अमीचंदजी " के नामसे प्रसिद्ध है, और प्रायः श्रीआत्मारामजी के संवेगमत अंगीकार किया पीछे, जितने नूतन शिष्य हुये, सर्वने थोडा बहोत जरूरही पंडितजी अमीचंदजी के पास विद्याभ्यास किया, बलकि अबतक कियेही जाते हैं.'
पट्टीसें विहार करके श्रीविश्नचंदजी, हुकमचंदओ, हाकमरायजी, चंपालालजी वगैरह श्रीआत्मारामजी के पास, जो लुधीयानासें विहार करके शहर " जलंधर " में आये हुये थे, पहुँचे. क्योंकि, वहां श्रीआत्मारामजीकी, और अजीवपंथी “रामरतन" और "वसंतराय" की अजीवपंथ संबंधी चर्चा होनेके वास्ते निश्चय हो गया था. इस अवसर पर २७ शहरों के श्रावक आये हुये थे, और पादरी तथा ब्राह्मण पंडितों को मध्यस्थ नियत किया था. जिसमें रामरतन और वसंतराय हार गये, और श्रीआत्मारामजीकी जीत हुई. तथापि रामरतन वगैरहने अपना हठ छोडा नहीं. सत्य है कि, जि. सका जो स्वभाव पडजावे, मरणपर्यंत भी वो स्वभाव प्रायः तिसका दूर नहीं होता है.
यतः॥ यो हि यस्य स्वभावोस्ति । स तस्य दुरतिक्रमः ॥
श्वा यदि क्रियते राजा । किं न अत्ति उपानहम् ॥ १ ॥ भावार्थ:- जो जिसका स्वभाव है, वो तिसका दूर होना मुश्किल है. क्या यदि कुत्तेको राजा बनाइये, तो वो जुतीको भक्षण नहीं करता है ? अपितु करताही है.
जालंधरसें जयपताका लेकर विहार करके श्री आत्मारामजी, तथा विश्व चंदजी वगैरह अमृतसरमें आये. और श्रीआत्मारामजीने, लाला " उत्तमचंदजीकी " बैठकमें उतारा किया, और
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