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गाममें गये; और संवत् १९२२ का चौमासा वहां किया. वहां "किशोरचंदजी” यतिके पास श्री
आत्मारामजीने दो तीन ज्योतिषके ग्रंथ पढे. तथा वडगच्छके यति “रामसुख और खरतर -गच्छके यति "मोतीचंद के पाससे साधु श्रावकके प्रतिक्रमण और तिसके विधिके पुस्तक लाकर देखें तो, मालुम हुआ कि, ढुंढकमतका प्रतिक्रमण, और तिसका विधि, यथार्थ नहीं है. और भी कितनेक पुस्तक लाकर देखा, और आचारांग सूत्र वृत्तिका भी स्वाध्याय किया. जिसमें श्रीआत्मारामजीको अधिकतर निश्चय हुआ कि, ढूंढकमत असल जैनमत नहीं है, परंतु जैनमतके नामसें जैनमतका आभास रूप, एक नया पंथ मनःकल्पित निकाला है. तथापि श्रीआत्मारामजीने विचार किया कि, “इस समय कुल पंजाब देशमें प्रायः ढुंढकमतका जोर है; और मैं अकेला शुद्ध श्रद्धान प्रकट करूंगा तो, कोई भी नहीं मानेगा. इस वास्ते अंदर शुद्ध श्रद्धान रखके बाह्य व्यवहार ढुंढकोंकाही रखके कार्यसिद्धि करनी ठीक है. अवसर पर सब अच्छा होजावेगा." ऐसा निश्चय करके श्रीआत्मारामजी चौमासे बाद सरसेसें सुनाममें आये; वहां " कनीराम रोहतक वाला ढुंढक साधु मिला. तिसके साथ ढुंढक साधुके भेष, और पडिक्कमणेका विधि, और ढुंढकाचारकी बाबत वार्तालाप हुआ. परंतु कनीरामने कुच्छ भीशास्त्रानुसारठीकठीक जवाब न दि. या, और कहा कि,"तुमारी श्रद्धा भ्रष्ट होगई है,जो तुम अपने गुरु, दादगुरुओंके कथनमें शंका करते हो? " तब श्रीआत्मारामजीने कहा कि, "मैं कोई गुरु, दादगुरुओंका बंधा हुआ नहीं हूं, मुझें तो श्रीमहावीर स्वामीके शासनके शास्त्रोंका मानना ठीक है. यदि किसीके पिता, पितामह कूपमें गिरै होवे तो, क्या उसके पुत्रको भी कूपमेंही गिरना चाहिये? " तब कनीराम क्रोध करके चला गया. और श्रीआत्मारामजी भी सुनामसे विहार करके मालेर कोटलामें आये, वहां लाला "कवरसेन" और " मंगतराय" के आगे अपने अंतरंग जो सनातन जैनधर्मका श्रद्धान बैठा था, सुनाया. उन्होंने भी अच्छी तरहसें समझके श्रीआत्मारामजीका कथन, जैनशास्त्रानुसार यथार्थ होनेसे अंगीकार किया. और श्रीआत्मारामजीकोही सद्गुरु सत्योपदेष्ठा मानने लगे. पंजाबमें इस वखत पूर्वोक्त दोही श्रावक, प्रथम शुद्ध श्रद्धान वालोंकी गिनतीमें हुए. वहांसें विहार करके शहर लुधीयानामें आये. वहां लाला “गोपीमल्ल" पाटणी को शास्त्रानुसार समझायके श्रीआत्मारामजीने अपना तीसरा श्रावक बनाया.यहां इस समय श्रीविश्नचंदजी, औरतिनके चेले चंपालालजी वगैरह भी आये हुएथे. चंपालालजीके मन में कितनेक संशय ढुंढकमत संबंधी पडे हुएथे. इसवास्ते अपने गुरु विश्रचंदजीको अवसर पाकर पूछतेही रहतेथे. परंतु श्रीविश्नचंदजी अवसरके जानकार होनेसें,यद्यपि अपने अंदर श्रीआत्मारामजीकी सोबतसें शुद्ध श्रद्धान हुआथा, और श्री सनातन जैनधर्मका शुद्ध स्वरूप जानते थे, तोभी खुलकर कथन करनेका अवसर अबतक न होनेसें पूरा पूरा जवाब नहीं देतेथे. किंतु गोलमोल जिससे पूछने वालेको ज्यादा शंका पडे, वैसे जवाब देतेथे.इसवास्ते एक दिन श्रीचंपालालजीने श्रीविश्नचंदजीको जोर देकर कहा कि, “महाराजजी साहिव ! हमने जो घर, हाट, पुत्र, परिवार आदि छोडके साधुपणा लियाहै,और आपका शरणा अंगिकार कियाहै,सो कुच्छ डूबनेके वास्ते नही,किंतु तिरनेके वास्ते है.इसवास्ते आप हमको शुद्ध अंतःकरणसे यथार्थ जैनमत, जो कि महावीर स्वामीके शासन पर्यंत सनातन चला आया, सो बताओ; हम आपका बडाही उपकार मानेंगे. जैसे आपने उपदेश देकर हमको संसारसें बचा
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