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तत्त्वनिर्णयप्रासाददिगंबरः-हां. ऐसेंही करते हैं.
श्वेतांबरः-शुभ प्रकृतियां भी, अस्मदादिकोंमें, मोहसहकृतही अपने कार्यको करती देखनेमें आती हैं. तब तो, केवलीकी गतिस्थितिआदि शुभ प्रकृतियां भी,मोहसहकृतही होनी चाहिये. इसवास्तेपूर्वोक्त दोनों प्रकृतियोंको मोहापेक्ष होकरके कवलाहारका कारणपणा नहीं है, किंतु स्वतंत्रकोही कारणपणा है. सो कारण केवलीमें अविकल अर्थात् संपूर्ण विद्यमानही है, तिसवास्ते कवलाहारका कारण, केवलीकेसाथ विरोधी नहीं है. यदि कार्यका विरोध मानो तो जो कार्य केवलज्ञानके साथ विरोधी है सो कवलाहारका कार्य, केवलिमें मत उत्पन्न हो. परंतु अविकल कारणवाला उत्पद्यमान कवलाहार तो, अनिवार्य है; अर्थात् कवलाहारको कोइ निवारण नही कर सकता है. ____एक अन्यबात है कि, सो कौनसा कार्य है ? जो, केवलज्ञानकेसाथ विरोधी है. क्या रसनेंद्रियसें उत्पन्न हुआ मतिज्ञान ? (१) ध्यानमें विघ्न ? (२) परोपकार करने में अंतराय? (३) विसृचिकादि व्याधि ? (2) ईर्यापथ ? (५) पुरीषादि जुगप्सितकर्म ? (६) धातुउपचयादिसें मैथुनेच्छा ? (७) निद्रा ? (८) आय पक्ष तो नही है. क्योंकि, रसनेंद्रियकेसाथ आहारका संबंध होनेमात्रसेंही जेकर मतिज्ञान उत्पन्न होता होवे तब तो, देवतायोंके समूहने जो करी है, महासुगांधित फूलोंकी निरंतर वर्षा, तिनकी सुगंधी नासिकामें आनेसे घ्राणेंद्रियजन्य मतिज्ञान भी होना चाहिये ॥ १॥ दूसरा पक्ष भी नहीं है. क्योंकि, केवलीका ध्यान शाश्वत है; अन्यथा तो, केवलीको चलते हुए भी, ध्यानका विघ्न होना चाहिये. ॥२ ॥ तीसरा पक्ष भी नहीं है, क्योंकि, दिनकी तीसरी पौरुषीमें एक मुहूर्त्तमात्रमेंही भगवंतके आहार करनेका काल है, बाकी शेषकाल परोपकारकेवास्तही है. ॥ ३॥ चौथा पक्ष भी नहीं है, जानकरके, हित मित आहार करनेसें. ॥ ४ ॥ पांचमा भी नही. अन्यथा, गमनादि करनेसें भी ईर्यापथका प्रसंग होवेगा.॥५॥ छहा भी नही. पुरीषादि करते हुए, केवलीको आपही जुगुप्सा होती है,
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