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त्रयस्त्रिंशःस्तम्भः। श्वेतांबरः-ऐसें विशेषणवाला भी हेतु, केवलीगतगतिस्थितिनिषद्यादि क्रियायोंके साथ व्यभिचारी है।
दूसरे पक्षमें तो तुमने हमारे सिद्धकोंही साध्या है, केवलीविषे वेदनीयादिकारणोंकरके भुक्तिके सिद्ध होनेसें. और सामान्यप्रकारसें भी, मोह, कवल करनेका कारण नहीं है. जेकर होवे, तब तो, गतिस्थितिनिषद्यादिकोंका भी मोहही कारण सिद्ध होवेगा. जेकर तैसें होवेगा, तब तो केवलीमें मोहके अभाव हुए, केवलीको गतिस्थित्यादिकोंका भी अभाव होवेगा. तब तो, तीर्थकी प्रवृत्ति कदापि नही होवेगी. जेकर कहोगे, गति आदि कर्मही, तिन गत्यादिकोंका कारण है, परं मोह नहीं है. तब तो, वेदनीयादि कर्मही, कवल आहारका कारण है, परं मोह नही; एसें भी मान लेवो. दिगंबर:-अघाति कर्म, तिस कवल आहारका कारण है.
श्वेतांबरः-अघातिकर्म तिस कवल आहारका कारण है तो, क्या आहारपर्याप्ति, नामकर्मका भेद, तिसका कारण है; वा वेदनीय कर्म? येह दोनोंही भिन्नभिन्न कारण नहीं है. क्योंकि, तथाविध आहारपर्याप्ति नामकर्मोदयके हुए, वेदनीयोदयकरके प्रबल ज्वलत् जठराग्निकरके उपतप्यमानही पुरुष, आहार करता है. ऐसें हुए, दोनोंही एकठे हुए, तिस कवल आहारके कारण होते हैं. किंतु सर्वज्ञपणेके साथ विरोधी नही है. क्योंकि, सर्वज्ञविषे तुमने भी तो तिन दोनोंको माने हैं. दिगंबरः-मोहकरके संयुक्तही, पूर्वोक्त दोनों कवलाहारके कारण है.
श्वेतांबर:-यह तुमारा कथन असंगत है. गतिस्थित्यादिकर्मोंकीतरें कवलाहारको भी, मोह साहायकरहितकोही, तिसके कारित्व होनेके अविरोधी होनेसें.
दिगंबरः-अशुभ कर्म प्रकृतियांही, मोहकी सहायताकी अपेक्षा करती है, नही अन्यगत्यादिक. और यह असातावेदनीय, अशुभप्रकृति है; इसवास्ते मोहकी सहायता चाहती है.
श्वेतांबरः-क्या यह परिभाषा, अस्मदादिकोंमें तैसें देखनेसें कल्पना करते हो?
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