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________________ तत्त्वनिर्णयप्रासादऐसा अवश्यभाव है नही. जेकर इसीतरें मानोगे, तब तो, केवलीको शरीरके हुए, अवश्य ममकार होना चाहिये, सो है नही, इतर जनोंमें शरीरपात्रादिके होए भी ममकार देखनेसें. .. और औदारिक शरीर भी, सर्वज्ञपणेके साथ विरोध नही धरता है. यदि विरोध धारण करे तो, केवलज्ञानकी उत्पत्तिके अनंतरही, औदारिक शरीरका अभाव होना चाहिये. और अभ्यंतर भी, आहारका विरोधि, कारण, शरीर है ? वा, कर्म है ? तिनमेंसें प्रथम कारण तो विरुद्ध नही है. क्योंकि, मुक्तिका हेतु, तैजसशरीरका सर्वज्ञकेसाथ रहना तुमने भी माना है.। दूसरे पक्षमें कर्म भी, घाति, वा अघाति ? घाति भी मोहरूप है, वा इतर है ? इतर भी ज्ञानदर्शनावरण है, वा, अंतराय है ? आदिके ज्ञानदर्शनावरण तो नहीं है. क्योंकि, तिनको तो ज्ञानदर्शनावरणमात्रमेंही चरितार्थ होनेसें, केवल आहारके कारणकी अनुपपत्ति है. । दूसरा पक्ष भी नहीं है. अंतरायके नाश होनेसेंही, आहारकी प्राप्ति होनेसें, और अंतरायकर्मका संपूर्ण नाश केवलीके तो तुमने भी माना है.। और मोह भी, ख़ानेकी इच्छा लक्षण जो है, सो तिसका कारण है, वा सामान्य प्रकार करके कारण है ? प्रथम पक्ष (बुभुक्षालक्षण ) में सर्व जगे खानेकी इच्छारूप मोह कारण है, वा अस्मदादिकोंविषे (हमारेतुम्हारेमें) ही है? प्रथमपक्ष तो प्रमाणमुद्राकरके दरिद्र है, अर्थात् प्रथम पक्षको सिद्ध करनेवाला कोइ प्रमाण नही है. दिगंबरः-हमारेपास प्रमाण है, सो यह है. जो चेतनक्रिया है, सो इच्छापूर्वकही है, जैसे अंगीकार करी हुई (क्रिया), तैसीही भुजिक्रिया है, सोही दिखाते हैं. प्रथम तो, प्रमाता, वस्तुको जानता है. तदपीछे तिसकी इच्छा करता है, पीछे उद्यम करता है, और तदपीछे करता है. . श्वेतांबरः-जैसे तुम कहते हों, तैसें नहीं है; सुप्तमत्तमूर्छितादिकोंकी क्रियाकरके व्यभिचार होनेसें. दिगंबरः-हम, स्ववशचेतनक्रिया, ऐसा विशेषणवाला हेतु, अंगीकार करेंगे, तब पूर्वोक्त व्यभिचार न रहेगा. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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