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त्रयस्त्रिंशः स्तम्भः ।
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लिखा है; इसवास्ते तुम उनका तो, व्यवच्छेद मानते हो; परंतु दशवैकालिक, उत्तराध्ययनादि, कहां गए ? दिगंबर:- वे भी व्यवच्छेद होगए.
श्वेतांबर:- बडे आश्चर्य की बात है कि, धरसेनमुनिके कंठाग्र समुद्रसमान दूसरे पूर्वका कर्मप्राभृत तो रह गया, और एकादशांग, और देशवैकालिक, उत्तराध्ययनादि, अल्पग्रंथवाले प्रकीर्णक ग्रंथ व्यवच्छेद हो गए !! ऐसा कथन प्रेक्षावान् तो, कदापि नही मानेंगे, परंतु मत कदाग्रहही मानेंगे. तथा पूर्वोक्त लेखोंसे यह भी सिद्ध होता है कि, कुंदकुंदादिकोंने, श्वेतांबरमतकी वृद्धि देखके, श्वेतांबरकी महिमा घटानेवास्ते, स्पर्द्धासें, अनुचित कठिन व्रतिके कथन करनेवाले शास्त्र रचे हैं. रागद्वेषके वशीभूत हुआ जीव, क्या क्या उत्सूत्र नही रच सकता है ? इन उत्सूत्ररूप ग्रंथोंके चलाने वास्तेही, पिछले अंग प्रकीर्णादि ग्रंथ छोड दीये सिद्ध होते हैं. क्योंकि, अकलंकदेवने राजवार्तिकमें पांचमे अंगव्याख्याप्रज्ञप्ति के कितनेक अधिकार लिखे हैं, वे सर्व, वर्तमान श्वेतांबरों के माने व्याख्याप्रज्ञप्ति पांचुमें अंगमें विद्यमान है; तो फिर, अकलंकदेवने किस व्याख्याप्रज्ञप्तिको देखके यह लेख लिखा ? जेकर कहो कि, गुरुपरंपरायसें कंठ थे तो व्याख्याप्रज्ञप्ति व्यवच्छेद कैसे हो गई !
तथा प्रश्नचर्चासमाधान के १६ मे प्रश्न में ऐसें लिखा है " विद्यमान भरतक्षेत्रमें पंचमकालमें सम्यग्दृष्टी जीव केते पाइए
समाधानः- जिनपंचलब्धिरूप परिणामकी परणतविषे सम्यक्त्व उपजे है, ते परिणाम इस कलिकालमें महादुर्लभ, तिसतें दोय, तथा तीन, अथवा चार कहै हैं; पांच छह तो दुर्लभ है. इस कथन की साख स्वामी कार्तिकेय टीकाविषे है.
तथाहि ॥
विद्यते कति नात्मबोधविमुखाः संदेहिनो देहिनः प्राप्यते कतिचित् कदाचन पुनर्जिज्ञासमानाः क्वचित् ॥ आत्मज्ञाः परमप्रमोदसुखिनः प्रोन्मीलवंतदृशो
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