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________________ ५६२ तत्त्वनिर्णयप्रासादततः श्रीकुंदकुंदाचार्यादिमुख्या यतीश्वराः॥ प्रकाशयंति सज्ज्ञानं सगृहाधिष्ठितात्मनाम् ॥ ३६ ॥ क्रमात्तद्धि समायातं परिज्ञाय महाश्रुतम् ॥ वक्ष्ये सद्धर्मबीजं हि ज्ञानं भव्यसुखप्रदम् ॥ ३७॥ तथा तत्त्वार्थसूत्रकी भाषाटीका सर्वार्थसिद्धिमें लिखा है “ बहुरि भद्रबाहुस्वामीपीछे दिगंबरसंप्रदाय, केतेक वर्ष तौ अंगज्ञानकी व्युच्छित्ति भई, अर आचार यथावत् रहवाही कीयो. पीछे दिगंबरनिका आचार कठिन, सो कालदोषते तथावत् आचारी विरले रहि गए. तथापि, संप्रदायमें अन्यथा परूपणा तो न भई. तहां श्रीवर्द्धमान स्वामिकू निर्वाण गये पीछे छहसैतियालीस (६४३) वर्ष पीछे दूसरे भद्रबाहु नामा आचार्य भये, तिनके पीछे केतेइक वर्षपीछे दिगंबरनिके गुरुके नाम धारक च्यार साखा भई. नंदि १, सेन २, देव ३, सिंह ४, ऐसें इनमें नंदिसंप्रदायमें श्रीकुंदकुंदमुनि, तथा उमास्वामीमुनि, तथा नेमिचंद्र, पूज्यपाद विद्यानंदि, वसुनंदि, आदि बडे बडे आचार्य भये. तिनने विचारी जो, सिथलाचारी श्वेतांबरनिका संप्रदाय तौ, बहुत वध्या, सौ तौ कालदोष है; परंतु यथार्थ मोक्षमार्गकी प्ररूपणा चली जाय, ऐसे ग्रंथ रचीए तौ, केई निकटभव्य होय, ते यथार्थ समझि श्रद्धा करे. यथाशक्ति चारित्र ग्रहण करें तो, यह बडा उपकार है, ऐसें विचारके ग्रंथ रचे.” इत्यादि लेखोंसे यह सिद्ध होता है कि, दिगंबरोंके मतके सर्व ग्रंथ नवीन रचे हुए हैं। प्राचीन पुस्तक कोई नहीं. जेकर दिगंबरमत सच्चा होता तो, गणधरादि मुनियोंका रचा कोइ ग्रंथ, प्रकरण, अध्याय, वस्तु, प्राभृतादि अवश्य होता, सो है नहीं; इसवास्ते यही सिद्ध होता है कि, अपना मत चलानेवास्ते दिगंबरोने स्वकल्पनाके ग्रंथ नवीन रच लीने हैं. और दिगंवरमतके तत्त्वार्थादिग्रंथोंकी वार्तिकाटीकादिमें श्रीदशवैकालिक, उत्तराध्ययनादि कितनेही पुस्तकोंके नाम लिखे हैं. इसमें हम यह पूछते हैं कि, अंग और पूर्वोका प्रमाण तो, तुम्हारे मतमें बहुत बडा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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