SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ४३ ) इस तरह महाराजजी श्रीने देखा कि जैन शास्त्रोंसें सिद्ध होता है कि, विना व्याकरण के पढे ठीक ठीक यथार्थ अर्थ नही भान होसकता. इस वास्ते मैं जरुर अब व्याकरण पढुंगा. हायअफशोस ! कैसे कुगुरोंके वश होकर जपनी अमूल्य विद्याप्राप्त्यवस्था निष्फल करी ! पूर्वोक्त कारणोंसें, तथा बहुत देशोंमें फिरनेसें, बहुत जैनमंदिर तथा बडे बडे पुस्तकोंके भंडार देखनेसें, श्री आत्मारामजीके मनमें यह निश्चय हुआ कि “जैनमत " तो कोई अन्यही वस्तु है, और यह ढुंढकमत अन्यही वस्तु है.' जैनमतके शास्त्रों से ढकमत के विपरीत अनिष्टाचरण देखनेसें, श्री आत्मारामजीके मनसें ढूंढकमतकी आस्था कम होगई और गुजरातदेशमें जाके पंडित साधुओंके साथ वातचित करके निर्णय करने का इरादा श्री आत्मारामजीने किया तथा जैनमत के प्रसिद्ध तीर्थ "शत्रुंजय" "उज्जयंत" ( गिरनार ) आदिकी बहुत प्रशंसा तिनके सुननेमें आई, जिससे उनको देखनेकी उत्कंठा भी श्रीआत्मारामजीको हुई. इस वास्ते श्री आत्मारामजीने "गुजरात " देशमें जाने की इच्छा की. परंतु जीवणरामजीने गुजरातदेशमें जाने के वास्ते कितनेक प्रकारकी दहशत दिखाई, और आज्ञा नही दी; जीससें श्रीआत्मारामजी चौमासे बाद "जावरा" "मंदसोर" "नीमच" "जावद " वगैरह शहरोंमें होके “ चितोड " गये. तहां पुराने किल्लेमें जाके बहुत उज्जडे हुए थे, (खंडेर ) जैनमंदिर, फतेह के महेल, कीर्त्तिस्तंभ, जलके कुंड, कीर्त्तिधर सुकोशल मुनिकी तप करनेकी गुफा, पद्मिनी राणीकी सुरंग, सूर्य कुंड वगैरह प्राचीन वस्तुयें देखके संसारकी अनित्यता और तुच्छता इंद्रजालकी तरह क्षणमात्रका तमासा याद आया ! इत्यादि श्रीठाणांग सूत्रोक्त दश प्रकारका त्रिकाल विषयक सत्य-तथा प्राकृत, संस्कृत, मागधी, पैशाची, सौरनसेनी अपभ्रंश, एवं षटू भाषा गद्य-पद्य करके बार प्रकार की भाषा तथा 66 'वयण तियं ३ लिंग तियं ३ कालतियं ३ तह परोक्ख १० पञ्चक्खं ११ उवणीयाइ चटक्क १५ अब्भत्थंचेव १६ सोलसमं " एवं सोलह प्रकारके वचनको जाननेवालेको अर्हदनुज्ञात बुद्धिद्वारा पर्यालोचन करके साधुको अवसर में बोलना चाहिये, नान्यथा तथा श्रीअनुयोगद्वार सूत्र में सक्कया पागयाचेव इत्यादि संस्कृत, और प्राकृत दो प्रकारकी भाषा स्वरमंडलमें ग्रहण करके बोलनेवाले साधुकी भाषा प्रसस्थ है. तथा पूर्वोक्त शास्त्रमेंही प्रमाणाधिकारमें भावप्रमाण चार प्रकारका है -- सामासिक ( १ ) तद्वितज (२) धातुज (३) निरुक्तिज ( ४ ). सामासिकके सात भेद हैं. द्वंद्व ( १ ) बहुव्रीहि ( २ ) कर्मधारय ( ३ ) द्विगु ( ४ ) तत्पुरुष ( ५ ) अव्ययीभाव (६) और एकशेप ( ७ ). तद्वितजके आठ भेद हैं, कर्म ( १ ) शिल्प ( २ ) श्लाघा ( ३ ) संयोग ( ४ ) समीप ( ५ ) ग्रंथरचना ( ६ ) ऐश्वर्यता ( ७ ) और अपत्य ( ८ ) धातुज - भू सत्तायां परस्मै भाषा - - एच वृद्धौ -- स्पर्द्ध संहर्पे - निरुक्तिज - मह्यां शेते महिषः। भ्रमति रौति च भ्रमरः मुहुर्मुहुर्लसतीति मुसलं इत्यादि - और भी श्री ठाणांग सूत्र - दशाश्रुत स्कंधसूत्र वगैरह भी व्याकरणका पढना सिद्ध होता है. * 'प्रायः इनका आचरण, जैनमतके शास्त्रोंसे विपरीत हैं. जैनशास्त्रों में ठिकाने ठिकाने जिनप्रतिमाका पाठ आता है, तिनका ढुंढकलोक निषेध करते हैं; और जिन प्रतिमाकी शास्त्रोक्त रीतिसें पूजन करनेवालेको हिंसाधर्मी कहते हैं. तपगच्छ, खरतरगच्छ आदिके साधु मुहपत्ति हाथमें रखते हैं, और ढूंढक साधु रातदिन मुख बंधी रखते हैं; जो कि जैनमतके शास्त्र से विरुद्ध है. तपगच्छादिके साधु दंडा रखते हैं, ढुंढक रखते नही हैं; और शास्त्रों में दंडेका वर्णन आता है. कितने ढुंढक श्रावक, कितने ही महीनों तकका स्नान करनेका नियम करते हैं, इतनाही नहीं, परंतु कितनेक जंगल (दिशा) फिरके हाथ, पाणोसें धोनेका भी नियम करते हैं. जिस नियमका नाम " अणकी व्रत " बहुत ढूंढो में प्रसिद्ध है तथा लघुनीतिका नाम “नयापाणी " घर रखा है, इत्यादि. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy