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________________ (४४) • चितोडसे “ उदयपुर, “नाथहास, “कांकरोली, " गंगापुर , “ भीलाडा", "सरवाड 7 " जयपुर , “ भरतपुर"" मथुरा ? " बिंद्राबन" होके “कोशी” के रस्ते “दिल्ली" शहरमें गये वहां चौमासा करनेकी श्रीआत्मारामजीकी इच्छा थी, परंतु जीवणरामजीके कहनेसें संवत् १९१७ का चौमासा, श्रीआत्मारामजीने "सरगथल" गाममें किया. चौमासे बाद विहार करके दिल्ली गये. दिल्लीसें जमनापार "खट्टा" " लुहारा" “बिनौली" "बडौत" "सुनपत" वगैरह स्थानोंमें फिरके संवत् १९१८ का चौमासा, दिल्ली में जा किया. तिस चौमासे में "पंजाबी ढुंढकोंके पूज्य " " अमरसिंहजी के चेले मुस्ताकराय और हीरालालको आठ शास्त्र श्रीआत्मारामजीने पढाये. चौमासे बाद सुनपत पानपित होके श्रीआत्मारामजी " करनाल" गाममें आये. वहां अमरसिंहजीके चेले “ रामबक्ष" " सुखदेव” “विश्नचंद" " चंपालाल" वगैरह मिले. तब श्रीआत्मारामजीने रामबक्ष, और विश्नचंदको अनुयोगहारसूत्र पढाया. वहांसें विहार करके श्रीआत्मारामजी "अंबाला शहरमें आये और रामबक्षादि भी बडसटके रस्ते होकर अंबाला शहरमें आये. वहांसें विहार करके श्रीआत्मारामजी"खरड” “रोपड” होके 'माछीवाडा" गाममें गये. यहांतक तो रामबक्ष वगैरह साधु, श्रीआत्मारामजीके साथही रहे, और पढते भी रहे. जिसमें इतने समयमें श्रीआत्मारामजीने पूर्वोक्त रामबक्ष और विश्नचंदको आचारांग, जीवाभिगम, नंदीसूत्र,वगैरह शास्त्र पढाये. रोपड गाममें श्रीआत्मारामजीने पंडित "सदानंदजी सें" सारस्वत ” व्याकरण पढना शुरू किया, और थोडेही समयमें अपनी अपूर्व बुद्धिसे टिलंगतकका अभ्यास कर लिया. माछीवाडेसें विहार करके श्रीआत्मारामजी मालेर कोटलामें जाके अपने गुरु जीवणरामजीसें मिले. वहांसें जीवणरामजी तो"रणीया" गाममें जा चौमासा रहे, और श्रीआत्मारामजी "सुनाम” गये, जहां श्रीआत्मारामजीका एक चेला हुआ.सुनामसें "समाणा""पटीयाला "नाभा "मालेर कोटला" "रायका कोट" और "जीगरांवह" वगैरह होके श्रीआत्मारामजी “जीरा 7 गाममें गये, और संवत् १९१९ का चौमासा जीरामें किया, रामबक्ष वगैरह साधु, देश"मारवाड के तरफ विहार कर गये.क्योंकि, इनके गुरु अमरसिंहजी मारवाडको गये हुयेथे. इतने दिनोंतक केवल पढनेके वास्तेही श्रीआत्मारामजीके पास रहेथे. परंतु चलते समय रामबक्षने श्रीआत्मारामजीसें आधीनताके साथ प्रार्थना की कि, "आप इस मुलक पंजाबमें आगयेहैं, और मेरे गुरु मारवाडको चलेगयेहैं, इस वास्ते आपने इस पंजाबदेशसे जोर लगाकर"अजीवमतकी"* जड काटते रहेना,इससे मेरे गुरु अमरसिंहजीको परम आनंद होगा और आपका बडा उपकार होगा.” संवत् १९१९ के चौमासेमें जीराही गाममें श्रीआत्मारामजीको व्याकरणके बोधसे ज्यादाही शक पैदा हुआ कि "जो अर्थ ढुंढक लोग शास्त्रोंका करतेहैं, वह व्याकरणकी रीतिसें ठीक मालुम नहीं होताहै; इसका निश्चय करना चाहिये. क्योंकि मैंने थोडाही व्याकरण अबतक पढाहै,तो भी मुजे कितनेही ठीक अर्थ मालुम होने लगे, तो,यदि जिसको पूरा पूरा व्याकरणका बोध होवे,उसका तो क्याही कहना है? इससे यही सिद्ध होताहै कि, * पंजाब देशके ढुंढकोंमें दो फिरके ( मत ) है, एकतो अनाजमें जीव मानते हैं और, एक नहीं मानते हैं. जो नही मानते हैं उनको अजीवमती कहते हैं. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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