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(४२) " जयपुर में किया. चौमासे बाद"बक्षीराम साधुके साथ “माधोपुर 7 " रणथंभोर" होके, "बुंदी7 "कोटा शहरमें गये. वहां ढुंढक साधुओंमें श्रेष्ठ "मगनजी स्वामी थे,तिनको मिलनेकी श्रीआत्मारामजीकी उत्कंठा हुई.परन्तु उस समय मगनजी स्वामी भानपुरमें थे. इस वास्ते श्रीआत्मारामजी भी भानपुर जाके तिनको मिले. वहां दोनोंही आपसमें चर्चा वार्ता होनेसें अत्यानन्दको प्राप्त हुए. श्रीआत्मारामजी भानपुरसे विहार करके "सीताम” “उजावरा होके "सलाना” गाममें अपने गुरुको मिलके,“रतलाम"गये. तहां ढुंढकमतका जानकार "सूर्यमल्ल” कोठारी था, जो जैनमतके११शास्त्र सच्चे हैं और शेष यतियोंकी कल्पनासें बने हुवे है,ऐसा मानताथा तिसको श्रीआत्मारामजीने हेतुयुक्ति देकर निरुत्तर किया, बाद तहांसें चलके “खोचरोद" “वंदावर " " वडनगर " इंदोर" और "धारानगरीमें" होके "रतलाम" फिर आये.और संवत् १९१६ का चौमासा वहां किया. मगनजी स्वामीने भी तहांही चौमासा किया.जिसमें श्रीआत्मारामजीकी उनके पास विद्याभ्यास करनेकी उत्कंठा,आनायासही सफल हुई.श्रीआत्मारामजीने उनके पाससे ढुंढकमतकी जितनी पुंजीथी-ढुंढक मतवाले ३२ शास्त्र मानतेहैं-सर्व लेली. अर्थात् ३२ ही शास्त्र पढ लिये और कितनेक कंठाग्र भी कर लिये. ___ अब श्रीआत्मारामजीके मनमें पूर्वोक्त कर्मरोगके प्रायः जीर्ण होनेसें ऐसी आशंका होने लगी कि, मैंने ढुंढकमतके सर्व शास्त्र देखे और इस मतके प्रायः सर्व प्रसिद्ध पंडितोंको मैं मिला, तिन सर्वका कहना एक दूसरेसे विरुद्द है. किसी एक बाबतमें कोई कीसी तरहका अर्थ करताहै,
और दूसरा दूसरी तरहका अर्थ करताहै, और जहां कोई अर्थ ठीक ठीक भान नहीं होताहै तो चार पांच जने एकत्र होकर सलाह करके मनः कल्पितअर्थ कर लेतेहैं, जिसको पंचायती अर्थ कहतेहैं. पंजाब देशके ढुंढको प्रायः पंचायतीही अर्थ चलताहै. तो अब मुजे कौनसा मत सत्य मानना,
और कौनसा असत्य मानना चाहिये ? और कितनेक लोक ४५ आगम मानतेहैं, कितनेक ३२, कितनेक ३१, और कितनेक ११ शास्त्र मानतेहैं. तो इनमें सच्चे कौन और झूठे कौन ? मुजे कितने शास्त्र सच्चे मानने चाहिये ? क्योंकि “ बुंदीकोटा' वाले ढुंढक शास्त्रोंके अर्थ, अपने मुखसे मतोघटित करतेहैं. मारवाडी ढुंढक भाषारूप जो टबार्थ लिखाहै उसमेंसें अपने मतके अनुयायी, अर्थको मानतेहैं,और शेष छोड देते हैं, या तिस पाठ पर हडताल लगाके ऊपर अपनी मति कल्पनाका अर्थ लिख देतेहैं, तथा “तपगच्छ १ " खरतरगच्छ ” वाले कहते हैं, कि ढुंढक लोग शास्त्रोंका यथार्थ अर्थ नहीं जानतेहैं.इत्यादि अनेक संकल्प विकल्प करके अंतमें श्रीआत्मारामजीने यह निश्चय किया कि, संस्कृत प्राकृत व्याकरण पढनेके पीछे शास्त्रोंके यथार्थ जे अर्थ होते होवेंगे, वे, मैं मानुगा. इस वखत श्रीआत्मारामजीको वैद्यनाथ पटवेका और फकीरचंदजीका कहना सत्य सत्य भान हुआ.*
दोहा-तबलग धोवन दूध है, जबलग मिले न दूध ॥
तबलो तत्त्व अतत्त्व है, जबलो शुद्ध न बुद्ध ॥ १ ॥ * जैनमतके शात्रोंसें भी सिद्ध होताहै कि, व्याकरण अवश्यमेव पढना चाहिये. क्योंकि, श्री प्रश्नव्याकरण सूत्रमें लिखा है कि-नाम, आख्यात, निपात, उपसर्ग, तद्वित, समास, संधिपद, हेतु, यौगिक, उणादि, क्रियाविधान, धातु, स्वर, विभक्ति, वर्ण, इनों करके युक्त-तथा जनपद सत्य, सम्मत सत्य, स्थापना सत्य,
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