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________________ (४१) श्री आत्मारामजी जयपुरसें अजमेर गये.वहां लक्ष्मणजी"देवकरणजी" और "जितमल्लजी" वगेरह ढूंढक साधुओंके पास कितनेक शास्त्र पढे.वहांसे फिर अमीचंदके पास पढने के लिये “जयपुरमें आये और संवत् १९१३ का चौमासा वहांही किया. वहांसें विहार करके "नागोर” (मारवाड) शहेरमें गये,और “हंसराजनामा श्रावकके पास “ अनुयोगहार" शास्त्र पढे. वहांसें "जोधपुर” जाके “वैद्यनाथ " पटवा ओसवालके पास विद्याध्ययन किया. “वैद्यनाथ व्याकरण पढना अच्छा मानतेथे, और भाष्यकार टीकाकार आदिकोंके कथनको बहुत प्रमाणिक, और सत्य गिनतेथे. इस वास्ते उन्होंने " श्रीआत्मारामजी" को कहा कि “आप व्याकरणादि पढनेके पीछे,शास्त्रोंकी भाष्य टीका वगेरह पढो तो आपकी बुद्धि सफल होवे. परंतु पूर्वोक्त असत्योपदेशके अजीर्णसें, और स्वोपार्जित ज्ञानावरण कर्मके प्रबलसें, “श्रीआत्मारामजी” को “वैयनाथ के वचनामृतकी रुचि हुई नहीं. वहां विहार करके शहर "पाली १ (मारवाड) वगैरहमें होके "नागार” गये, और संवत् १९१४ का चौमासा वहां किया. इस चौमासेमें श्रीआत्मारामजीने ढूंढकोके श्रीपूज्य "कचोरीमल्ल के पास, और "नन्दराम” “फकीरचंदजी वगैरह साधुओंके पास “सूयगडांग" "प्रश्नव्याकरण" "पन्नवणा” “जीवाभिगम' आदि शास्त्रोंका अभ्यास किया. उस समय फकीरचंदजीके पास "हर्षचंद"नामा एक शिष्य “सिध्ध हैम कौमुदी" (चंद्रप्रभा नामका जैन व्याकरण) पढताथा.जिससे फकीरचंदजीने श्रीआत्मारामजीको कहा कि, "तुमारी बुद्धि बहुत निर्मल है, इस वास्ते तुम मेरे पास चन्द्रप्रभा पढो,तुमको जलदी आजावेगी. परंतु उस वखत श्रीआत्मारामजीको पूर्वोक्त कर्म रोगसें,फकीरचंदजीका पूर्वोक्त वचनामृत भी रुचा नहीं. चौमासे बाद श्री आत्मारामजीने विहार करके "मेडता” "अजमेर” "किसनगढ” “सरवाड"वगैरह शहरोमें थोडा थोडा काल व्यतीत किया, जिनमें "उत्तराध्ययन” “दशवैकालिक" " सूयगडांग" "अनुयोगहार "नंदी” हूंढ कोका "कल्पित आवश्यक" और "बृहत्कल्प वगैरह शास्त्र कंठाग्र किये. अनुमान दश हजार श्लोक श्रीआत्मारामजीने कंठाग्र किये. संवत् १९१५ का चौमासा रोमणि वानर, तलवार लेके सर्पकी भ्रांतिसें राजाके शरीर पर घाव करने लगा. उस अवसरमें उसी नगरका रहनेवाला कोइक विद्वान्, जन्मका दरिद्री, अन्य व्यवहाराभावसें अपनी स्त्रीकी प्रेरणासें चोरी करनेके वास्ते गया. वह प्रथम किसी वेश्याकै घरमें गया. वहां देखता है कि, वेश्या किसी कष्टीके साथ विषय सेवन कर रही है. देखके विचार करने लगा कि,"हा ! जिस पैसे वास्ते ऐसे कोढीके साथ भी यह रमण होती है ! इस वास्ते इसका पैसा मुझको लेने योग्य नही है"--पीछे वहांसें निकलके एक लक्षाधीशके वहां गया.वहां देखता है कि,पितापुत्र हिसाब मिला रहे हैं; परंतु हिसाब बहुत मेहनत करनेसें भी नहि मिला.अनुमान आठ आनेका फरक रहा.तब पिताने पुत्रको ऐसा मारा, कि पुत्र मूर्छित होगया, देखके पंडितने विचार किया कि जो आठ आने पीछे अपने एकके एक सकुमार पुत्रके ऊपर ऐसा जुलम गुजारता है,यदि मैं इसका धन चुरा कर ले जाऊंगा तो,जरूर यह छाती फटकर मर जायगा! इसवास्ते ऐसे कृपणका धन भी लेना मुझको उचित नहीं है.इत्यादि विचारकर फिरतार राजाके महेलपर जा चढा.वहां पूर्वोक्त कार्य करते वानरको देखके, एकदम पंडितने वानरके दोनों हाथ खूब जोरसे पकड लिये. तब वानरने किलकिलीयारी करके शोर मचाया. जिससे राजाकी निंद खुल गई. राजाने पंडितको पूछा, " तू कौन है ? और किसवास्ते इसको तूने पकडा है"? पंडितने ऊपर जाते हुए सर्पको दिखाके, अपना सारा वृत्तांत सत्य सत्य सनादिया. राजाने खश होकर पंडितकी आजीविका कर दी.और वानरको निकलवा दिया. यहां यद्यपि पंडित चौरी करनेको आया था,और राजाका शत्रुभूत हुआ था, तो भी विद्वान् होनेसें नफा नुकसान विचार लिया. इसवास्ते हित करनेवाले मूर्खसें, शत्रु पंडितही अच्छा है कि, जो अवसर तो विचार लेता है ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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