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________________ (४०) "काशीराम' नामक एक ढूंढक श्रावकके पास "श्रीआत्मारामजी ने “ उत्तराध्ययन" सूत्रके कितनेक अध्ययनोंका पठन किया. और दीक्षा लिये बाद पंदरह दिनोंमेंही व्याख्यान करने लग गये, कितनेही दिनोंबाद गुरुके साथ विचरते हुये "सरसा-राणीया"गाममें गये और संवत् १९११ का चौमासा वहांही किया, वहां मालेरकोटला निवासी “स्वरायतीमल्ल' नामक बनिया, दीक्षा लेकर श्रीआत्मारामजीका गुरुभाई बना, जो कि इस बखत मुलक गुजरात, जिल्ला काठीयावाडमें प्रायः विचरते हैं. जिनका नाम ढूंढकमत परित्याग करके संवेगीपणा अंगीकार किया, तब सद्गुरुने “श्रीखांतिविजयजी" दिया है, इन महात्माने कितनेही वर्ष हुए षष्ठ षष्ठ (बेले बेलेदो उपवास )पारणा करना शुरु किया है, जो अबतक वृद्धावस्था है, तो भी कियेही जाते हैं, (छबी देखो) राणीयामें श्रीआत्मारामजीने वृद्ध पोसालीय तपगच्छके "रूपऋषिजी के पास " उत्तराध्ययन” सूत्र पठन किया वहांसे यमुना नदीपार "रुडमल्ल ” साधुकेपास पढने के लिये गये, और उनके पास “ उववाई ” सूत्र पढा, वहांसे दिल्ली होके “सरगथल 7 गाममें गये, और संवत् १९१२ का चौमासा किया, वहां "श्रीआत्मारामजी” के दादा गुरु "गंगारामजी" काल धर्मको प्राप्त हुये चौमासेबाद गुरु और गुरुभाईके साथ विचरते हुये " जयपुरमें गये, वहां “अमीचंद” नाम ढूंढक, जो कि उस बखत हूंढकोंमें श्रुतकेवली कहाता था, तिसकेपास "श्रीआत्मारामजी" ने “आचारांग" सूत्र पढना प्रारंभ किया, जयपुरके ढूंढकलोकोंने श्री आत्मारामजीको कहा कि “तुम व्याकरण मत पढना, यदि पढोगे तो तुमारी बुद्धि बिगड जायगी.''(अब भी ढूंढक मतवालेका यह प्रथम प्रायः मंतव्यहै.) सत्यहैदोहा-रत्न परीक्षक जानीये, ज्होरी नाहिं चमार। पंडित तत्त्व पिछानीये, नाहिं जट्ट गमार ॥ श्रीआत्मारामजीको पूर्वोक्त शिक्षा देनेवाले ऐसे मिले कि, जिनोंने विद्या कल्पवृक्षकी जड काटडाली! विद्यालाभरूप अमृत मेघवर्षण समान जो अवस्था थी उसमें आगकी वर्षा भई !! क्योंकि उस समय “श्रीआत्मारामजी की ऐसी शक्ति थी कि, जिससे निरंतर तीनसौं श्लोक कंठाग्र कर सकते थे, परंतु यह उत्तम समय, पूर्वोक्त आभास हितकारीयोंके उपदेशसे निष्फल गया. अफशोस ! ! ऐसे हितकारीयोंसे तो पंडित शत्रुही श्रेष्ठ है. यतः॥ पंडितोपि वरं शत्रु, ने मूर्यो हितकारकः ।। वानरेण हतो राजा, विप्र चौरेण रक्षितः॥१॥ पंडित शत्रु तो श्रेय है, परंतु हितकारी मूर्ख अच्छा नहीं है; वानरने राजाको मारा, और ब्राह्मण चौरने उसको बचा लिया.* * भावार्थ इसका यह है कि किसी एक नगरमें कीसी राजाके पास कोई मदारी वानर नचाने लगा. उस वानरकी चपलता देखके राजा खुश होकर मदारीसे कहने लगा, “जो तेरी मरजीमें आवे,सो तूं मेरेपास मांग ले; परंतु यह वानर तूं मुजे दे दे." मदारीने बहुत ना कही,परंतु राजहठ जोरावर है राजाके पास किसीका जोर नहीं चलताहै. लाचार होकर मदारिने वानर दे दिया.राजाने उस वानरको अपना पेहरेगीर बनाया,और हाथमें तलवार देके,उसको अपने पल्यंक(पलंग)के पांवके साथ बांध दिया एकदिन ऐसा हुआ कि राजा सोताहै,वानर पहरा देताहै,इतने में एक सर्पराजाके पल्यंकपर छतके साथ जाता है, उसकी छाया राजाके शरीर पर पडी,उस छायाको देखके मूर्खशि. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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