________________
पूर्वोक्त हकीगत गंगारामजी और जीवणमल्लजी साधुओंने सुनकर जोधामल्लके छोटे भाइ दित्तामलको जिसका धर्ममें बडाही राग था, कहा कि, “ आप अपने बड़े भाईको समझाकर आत्मारामजीको साधु होने की आज्ञा दिलवा देवें.7 दित्तामल्लके आग्रहसे, और श्रीआत्मारामजीकी वृत्ति सर्वथा संसारमें पराङ्मुख देखनेसे, अंतमें जोधामल्लने भी लाचार होकर आज्ञा दे दी. और कहा कि, "हे पुत्र ! चिरंजीव रहीयो ! और "श्रीजैनमत" का खूब उद्योत करीयो" ! वृद्धोंके बचन कैसे फलप्रदाता है ! ! कि जोधामल्लके इस आशिर्वादने थोडेही कालमें क्या असर दिखलाया ! जोकि इस बखत स्वप्नमें भी ख्याल नहीं था.
चौमासे बाद मगसर वदि एकमके दिन “मनसूरदेवा" गाममें साधुओंके साथ श्रीआत्मारामजी जा रहे. वहां जीराकी बाईयोंके साथ श्रीआत्मारामजीकी माता भीरुदन करती हुई आई. तब साधुओंने तिसको बहुत अच्छी तरांह समझाई. और पूछा कि, “माई! तेरे पुत्र का नाम "दित्ता” है ? वा “देवीदास" है ? वा “आत्माराम' है ? क्योंकि, लोक इसको कितनेही नामोंसे बुलाते हैं. हम इसका कौनसा नाम रखे ? १ माताजीने कहा कि, “महाराजजी ! इसका असली नाम तो “ आत्माराम" ही है, और शेष पीछेसे कल्पना करे हुये है," तब साधुओंने कहा कि, "हम तो पहिलाही नाम अर्थात् “ आत्माराम” ही रखेंगे, " तबसे श्रीआत्मारामजीका यही (आत्माराम) नाम प्रसिद्ध हुआ और ऋम करके "मालेर कोटला में पहुंचे. जहां मगसर सुदि पंचमीके रोज बडी धामधूमसे “जीवणरामजी गुरुके पास ढूंढक मतकी दीक्षा ली.
श्रीआत्मारामजीकी बुद्धि बहुत तीव्र, और निर्मल थी,परंतु उनके गुरु अधिक पढे हुये न होनेसे बांधलिया. और लौंकेसे विलक्षणही मत निकाला. लवजीके चेले सोमजी तथा कहानजी हुये. तथा लंपकमति कुंवरजीके चेले धर्मसी-श्रीपाल-अमीपालने भी गुरूको छोडके, स्वयमेव पूर्वोक्त आचरण किया. तिनमें धर्मसीने आठकोटी पच्चख्खाणवका पंथ चलाया, जो गुजरात देश प्रांत काठियावाडमें प्रसिद्ध है.
लवजीके चेले कहानजीके पास एक धर्मदास नामका छीपा दीक्षा लेनेको आया, परंतु कहानजीका आचार उसने भ्रष्ट जाना, इस वास्ते वह भी मुहको पट्टी बांधके,स्वयमेवही साधु बनगया. इन सबका रहनेका मकान ढूंढा फूटा हुआथा, इस वास्ते लोकोंने ढूंढक नाम दिया. केई ढूंढक लोक कहतेहैं कि
ढूंढत ढूंढत ढूंढ फिरे सब वेद पुरान कुरानमें जोई ॥
ज्युं दधिसेती मख्खण हूंढत त्युं हम ढूंढियाका मत होई॥ परंतु यह बात लोकोंको भरमानेके वास्ते खडी की है, क्योंकि इन ढूंढकोकी पट्टावलीयोंमें पूर्वोक्त लेख है नहीं. अस्तु तुष्यंतु दुर्जनाः तथापि इस पूर्वोक्त ढुंढकोंके कथनसे भी यही सिद्ध होता है कि यह ढूंढकमत जैनशास्त्रानसार है नहीं तथा एक यह भी आश्चर्य है कि जो जो अनिष्टाचरण ढूंढकोमें प्रचलित है सो न तो वेदमें है,न परानमें है, और न कुरानमें है तो इन महाशयोंने अपना माना अनिष्टाचरण किस पातालसे निकाला होवेगा! तथा वेद पुरान कुरानके माननेवालोंने जरूर इन ढूंढकोंसे पूछना चाहिये कि “ महाशयों ! वेद पुरान कुरानका नाम लेके अपने मतकी सिद्धि करनी चाहते हो परंतु अपना अनिष्टाचरण वेद पुरान कुरानमेंसे निकाल देवोगे ?"कदापि न निकलेगा. धर्मदास छोपेका चेला धनाजी हआ, उसका चेला भूदरजी हुआ, उसके चेले रघुनाथ-जयमष्ट्रजी-गुमानजी हुये, इनका परिवार प्रायः मारवाडदेशमें है. रघुनाथके चेले भीषमने तेरापंथी मुहबंधेका पंथ चलाया.
लवजीका चेला सोमजी, तिसका चेला हरिदास, उसका चेला वृंदावन, उसका भवानीदास, उसका मलूकचंद उसका महासिंह उसका खुशालराय उसका छजमल उसका रामलाल उसका चेला अमरसिंह, इनके परिवारके साधु प्रायः पंजाब देशमें है,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org