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तत्त्वनिर्णयप्रासादतिसकी इच्छानुसार नवीन व्याकरण रचनेका वर दीया, तब तिसने व्याकरणकी अष्टाध्यायी रची. और वररुचि आदिकोंको कहने लगा कि, मेरे साथ व्याकरणविषयमें शास्त्रार्थ करो. तब वररुचि आदिकोंने तिसकेसाथ शास्त्रार्थ करके सात दिनमें पाणिनिका पराजय करा; तब तिसकालमें महादेवने आकाशमें आके हुंकारशब्द करा, तब तिन पंडितोंका इंद्रव्याकरण नष्ट हो गया; तब पाणिनिने तिन सर्वपंडितोंको जीत लीये. तद पीछे वररुचिने हिमालय पर्वतमें जाके, शिवकी आराधनासें वर पाके, तिस अष्टाध्यायीकी न्यूनता पूरणेवास्ते वार्तिक रचा. ॥
इससे सिद्ध हुआ कि, पाणिनि नंदराजाके समय होनेसें श्रीवीरात् १५५ वर्ष पीछे लगभग हुआ. तो, क्या, पाणिनिसे पहिले पंडितजन व्याकरणसें शून्य थे ? शून्य नही थे, किंतु जैनेंद्र, इंद्र, शाकटायनादि जैनव्याकरण प्रचलित थे, तो फिर, जैनमत व्याकरणशून्य कैसे सिद्ध होवे ? कदापि न होवे. तथा पातंजलिने जो अष्टाध्यायीके ऊपर भाग्य रचा है, सो भी प्रायः जैनेंद्र इंद्र शाकटायनादिव्याकरणानुसार रचा है.
पूर्वपक्षः-आपने कितनेही प्रमाणोंद्वारा जैनमतको प्राचीन ठहराया सो ठीक है; परंतु 'जैन' शब्द जिनशब्दसें तद्धित होके बनता है, और 'जिन' शब्द 'जि जये' धातुका बनता है, और 'जि' धातु प्राचीन नहीं है. क्योंकि, श्री बाबु शिवप्रसादजी सितारेहिंद अपने रचे इतिहासतिमिरनाशकके तीसरे खंडके पृष्ठ १७ में लिखते हैं कि, 'जि जय' धातु प्रमाणिक नही है. क्योंकि सायन और नृसिंहने अपने रचे उणादि और स्वरमंजरीमें इस धातुको छोड दिया है. यह धातु किसी प्रमाणिक ग्रंथमें नही मिलता है.
उत्तरपक्षः-हे प्रियवर ! बाबुसाहबने जो लिखा है, सो, क्या जाने किस अनुभवज्ञानसें लिखा है !! क्या बाबुजी सितारेहिंद वेदोंको प्रमाणिकप्रथ नही मानते हैं ? क्योंकि, यजुर्वेद अध्याय १९ मंत्र ४२। ५७ में जि जयधातुके प्रयोग है. जिसको शंका होवे सो, यजुर्वेद देख लेवे. वेदोंके अप्रमाणिक होनेसें, फिर वो ऐसा वेदोंसे पुराना पुस्तक कोनसा है, जिसने जि जयधातुको अप्रमाणिक जानके छोड दिया है ? यह लेख
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