SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 638
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वात्रिंशस्तम्भः। तो, किसीने जैनमतोपरि द्वेषबुद्धिसें लिखा मालुम होता है. किसी मताग्रहीको यह सूझा कि, जिस जि जयधातुसें जिन सिद्ध होता है. तिसधातुकोही उडा दो. इसीतरें द्वेषबुद्धिसें वेदोंमेंसें कितनीही ऋचा, मंत्र और शाखायोंको गुम्म करदी हैं. तो बिचारा जि जयधातु तो किस गिणतीमें है ? पूर्वपक्षः-जैनमत वेदमतकी बातें लेकर रचा गया है, ऐसे कितनेक कहते हैं, तिसका क्या उत्तर है ! उत्तरपक्षः-हे प्रेक्षावानो ! तुमको विचारना चाहिये कि, जेकर जैनमत वेदकी कितनीक बातें लेकर रचा गया होवे, तब तो जो कथन, जैनमतमें है, सो सर्व वेदोंमें होना चाहिये. परंतु, कर्मकी ८ मूलप्रकृति, और १४८ उत्तरप्रकृतियोंके स्वरूपके कथन करनेवाले षट्कर्मग्रंथ, पंचसंग्रह, कर्मप्रकृति, प्राभृतकी संग्रहणी, प्राचीन पांच कर्मग्रंथ, शतक, षडशीति कर्मग्रंथ, प्रज्ञापना उपांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, आदिमें लगभग अशीतिसहस्र (८००००) श्लोकोंका प्रमाण है. तिनको कथनका गंधभी, चार वेदसंहिता, ब्राह्मण, उपनिषत्, कल्पादिमें नहीं है, और साधुकी पदविभागसमाचारी, जिसके कथन करनेवाले सवालक्ष (१२५०००) श्लोक लगभग हैं; और जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष, इन पदार्थोंका जैसा स्वरूप, जैन मतके शास्त्रोंमें कथन करा है, तैसा स्वरूप वेदोंमें स्वप्नमें भी कदी नही दीख पडेगा. इसवास्ते प्रेक्षावानोंको चाहिये कि, वेद और जैनमतके शास्त्र पढके तिनका मुकाबला करें और विचारें, तब यथार्थ मालुम हो जावेगा कि, जैनमत वेदमेंसे रचा गया है, वा, वेदोंमें जे जे अच्छी बातें है, वे जैनमतमेंसें लेके रची गई हैं ? जो पूर्वोक्त ग्रंथोंका मुकाबला करके तत्त्व निश्चय करके धारेगा, तिसका कल्याण होवेगा.. तथा जैनमतके प्राचीन होनेमें एक अन्य भी प्रमाण मिला है सो ऐसें है.। श्रीकांतानामा नगरीका रहनेवाला धनेशनामा श्रावक यानपात्रकरके समुद्रमें जाता था; तिनके अधिष्ठायक देवताने तिस जहाजको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy