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________________ द्वात्रिंशस्तम्भः। यथा। भ्रातःसंदणु पाणिनिप्रलपितं कातंत्रकंथा तथा। माकार्षीः कटुशाकटायनवचः क्षुद्रेण चांद्रेण किम् ॥ का कंठाभरणादिभिर्बठरयत्यात्मानमन्यैरपि। श्रूयते यदि तावदर्थमधुराः श्रीहेमचंद्रोक्तयः॥१॥ भावार्थ:-हे भाइ ! जबतक अर्थोकरके मधुर, ऐसी श्रीहेमचंद्रजीकी उक्तियों सुणते हैं, तबतक पाणिनिके प्रलापको बंद कर, कातंत्रको वृथा कंथा (गोदडी ) समान जान, कौडे ( कटुक) शाकटायनके वचन मत कर अर्थात् उच्चारण न कर, तुच्छ चांद्रकरके क्या है ? कुछ भी नही, तथा कंठाभरणादि अन्य व्याकरणोंसें भी कौन पुरुष अपने आत्माको पीडित करे ? कोई भी नही. ॥ तथा शिशुपालबधके सर्ग २ के श्लोक ११२ में माघकवि, न्यासग्रंथका स्मरण करते हैं; इसवास्ते माघकवि, न्यासके प्रणेता जिनेंद्र, और बुद्धिपाद बुद्धिसागर आचार्योंसें पीछे हुए हैं. . ऐसे माघकाव्यके उपोद्घातके षष्ठ (६) पत्रोपरि जयपुरमहाराजाभित पंडित ब्रजलालजीके पुत्र पंडित दुर्गाप्रसादजीने लिखा है,। इस लेखसे भी जैनव्याकरणोंके न्यास अतिचमत्कारी है, और प्राचीन पंडितोंको सम्मत है. नही तो, माघसरिखे महाकवि, न्यासका स्मरण किसवास्ते करते? - पाणिनिकी उत्पत्तिका स्वरूप, सोमदेवभट्टविरचित कथासरित्सागर, तथा तारानाथतर्कवाचस्पतिभट्टाचार्यविरचित कौमुदीकी सरला नाम टीका, और इतिहासतिमिरनाशकके तीसरे खंडके अनुसारसे लिखते हैं। पाटलिपुत्रनगरके नवमे नंदके वखतमें वर्ष उपवर्षनामा पंडित थे, तिनके तीन मुख्य विद्यार्थी थे, वररुचि (कात्यायन), व्याडी इंद्रदत्त, और एक जडबुद्धि पाणिनिनामा छात्र था. सो तहांसें हिमालयपर्वतमें जाके तप करता हुआ, तिसके तपसें तुष्टमान होके किसी शिवनामा देवताने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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