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________________ द्वात्रिंशस्तम्भः । ५०५ शाखा आपस्तंब १, हिरण्यकेशी २, मैत्राणि ३, सत्याषाड ४, बौद्धायनी ५; शुक्लयजुर्वेद याज्ञवल्क्यने रचा तिसकी शाखा काण्व १, माध्यं - दिनी २, कात्यायनी ३, ये तीन है; सर्व यजुर्वेद की शाखा ८५ सामवेदकी शाखा कौथुमी १, राणायणी २, गोभील ३, ये तीन है. अथर्ववेद की शाखा पिप्पलाद १, शौनकी २, ये दो है. इतनी शाखाके ब्राह्मण मालुम होते हैं. परंतु शाखासमान वेदपाठ, इतनेतरेके मालुम नही होते हैं. माध्यंदिनी काण्ववत्. अब कौन जाने कि, किस शाखा में, किस वेदपाठ में क्या कथन था ? और इस समय में भी, तैत्तिरीय आरण्यककी भाष्य में सायणाचार्य लिखते हैं कि, इसमें द्रविडदेशके ब्राह्मणों के चौसट्ट ( ६४ ) अनुवाकका पाठ है; अंधों के ८०, कितनेक कर्णाटकोंके ७४, और कितनेकके नवाशी, ( ८९ ) अनुवाकका पाठ है. परंतु हम अस्सी ( ८० ) पाठवालेका व्याख्यान, पाठांतर सूचनासहित, प्रधानताकर के करेंगे तथाच तत्पाठः ॥ 66 '॥ तत्र द्रविडानां चतुःषष्ठ्यनुवाकपाठः । आंध्राणामशीत्यनुवाकपाठः । कर्णाटकेषु केषांचिच्चतुःसप्ततिपाठः । अपरेषां नवाशीतिपाठः । तत्र वयं पाठांतराणि यथासंभवं सूचयंतोशीतिपाठं प्राधान्येन व्याख्यास्यामः ॥ " तथा कलकत्ता के छापेका पुस्तक तैत्तिरीय आरण्यकका जो हमारे पास है, तिसमें लिखा है कि, कितनेही पाठ भाष्यकारने त्यागे हैं, तिनका भाष्य नही करा है. और कितनेक पाठोंका भाष्य करा है, वे पाठ मूलपुस्तकमें नही है. और तैत्तिरीय ब्राह्मण प्रथमाष्टक प्रथम प्रपाठक प्रथमानुवाक के प्रथम मंत्रके भाष्य में भी सायणाचार्य लिखते हैं कि " 11 वाजसनेयिनश्च विज्ञानमानंदं ब्रह्म - इति ॥ " परंतु यह श्रुति वाजसनेयसंहितामें मालुम नही होती है. इत्यादि अनेक प्रमाणोंसें सिद्ध होता है कि, वेदोंमें बहुत गडबड हुइ है; और बहुत हिस्से नष्ट हो गए हैं. और शेष रहे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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