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तत्त्वनिर्णयप्रासाद
ऐसा ज्ञानी कौन है ? कि, जो कह देवे कि, किसी भी वेदकी शाखामें अर्हन्तका नाम नही है !!
जब शंकराचार्य, जिसको हुए लगभग बारांसौ वर्ष व्यतीत हुए हैं, तिसके समय में वेदादि पुस्तकों में बहुत गडबड करी गई, पुराणे पुस्तकों में से कितनेही हिस्से निकाले गए, और कितनेक हिस्से नवीन दाखल करे गए हैं, यह कथन इतिहास तिमिरनाशक में है. और वेदों के अर्थ करने में भी शंकर, माधव, सायणाचार्यादिकोंने अपने २ भाष्य में बहुत अर्थ मनःकल्पित लिखे हैं. क्योंकि, प्राचीन वेदभाष्य इनको नही मिले हैं. इसवास्ते इनके करे अर्थ कितनेही अनन्वित है. और जो भाष्य इनोंने रचे हैं, तिनोंमें भाष्यके लक्षण भी नही है. केवल टीकाका नामही भाष्य रख दिया है. भाष्य तो वह होता है कि, जिसमें मूलसूत्रकारका जो अभिप्राय होवे, सो सर्व प्रकट करा होवे “। सूत्रं सूचनकृत भाष्यं सूत्रोक्तार्थप्रपंचकम् । ” इति वचनात् । जैसें आवश्यक सूत्रके प्रथमाध्ययनके ८६ अक्षर है, तिसकी नियुक्तिका भाष्य ५००० श्लोकप्रमाण प्राकृतगाथाबद्ध है, और तिसकी टीका २८००० श्लोकप्रमाण संस्कृत में है. ऐसेंही कल्पसूत्र ( बृहत् ) मूल ४७३, भाष्य १२०००, प्राकृतगाथाबद्ध, टीका ४२०००, श्लोकप्रमाण संस्कृत में है. इत्यादि अनेक शास्त्रोंके इसतिरेके भाष्य है. तथा जैसें पाणिनीयसूत्रोपरि पतंजलिकृत भाष्य हैं, यह तो भाष्य है. परंतु जो नवीन भाष्य रचे गये हैं, वे तो, अभिमान के उदयसें रचे मालुम होते हैं. जैसें दयानंदसरस्वतीजीने वेदोंपर नवीन भाष्य रचा है, यह भाष्य नही हैं, किंतु शास्त्रोंके सत्यार्थ बिगाडनेसें विटंबनारूप है. और दयानंदजीका भाष्य तो ऐसा है कि
चार सुहाली सोले थाली, वांटणवाली अस्सी जणी; सारे गाम ढंढोरा फेर्या, हंदि थोडी ने हलहल घणी ।
और इस समय में ऋग्वेदकी शाखा संख्यायनी १, शाकल २, वाष्कल ३, अश्वलायनी ४, मांडुक ५; कृष्णयजुर्वेद तैत्तिरीय तिसकी
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