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________________ त्रिंशस्तम्भः। ४९१ प्रत्याख्यान चितवन करे. । पीछे चैत्यको प्रदक्षिणा करके, पौषधशाला ( उपाश्रय ) में जाकर, देवकीतरें बडे आनंदसें साधुयोंको वंदन करे. सुंदरबुद्धिवाला होकर, पूजासत्कार करे.। पीछे एकाग्रचित्त होकर साधुके मुखसे धर्मदेशना श्रवण करे. पीछे मनमें धारा हुआ प्रत्याख्यान करे. पीछे गुरुको नमस्कार करके कर्मादानको अच्छीतरें त्यागके, धन उपार्जन करे. यथायोग्य स्थानमें व्यापार समाचरे. कुत्सित बुरा कर्म प्राणोंके नाश हुए भी न करना.। पीछे अपने घरदेहरामें अर्हत्की मध्यान्हपूजा करके, अन्नपानी समाचरे. भक्तिसें साधुयोंको दान देके, अतिथीयोंकी पूजा आदरसत्कार करके, और दीन अनाथ मार्गणगणको संतोषके, अपने व्रत और कुलके उचित भोज्य वस्तुका भोजन करे. ॥ साधुको आमंत्रण ऐसे करे.॥ क्षमाश्रमण पूर्वक गृहस्थ कहें । " ॥ हे भगवन् फासुएणं एसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वथ्थकंबलपायपुच्छणपडिग्गहेणं ओसहभेसज्जेणं पाडिहेररूवेण सिज्जासंथारएणं भयवं मम गेहे अणुग्गहो कायवो ॥” तदपीछे ( भोजनानंतर ) गुरुके पास शास्त्रका विचार करे, पढे, सुने । पीछे धन उपार्जन करके घरको जाकर संध्यापूजा करके सूर्यके अस्त होनेसें दो घडी पहिले, निजवांछित भोजन करे. सायंकालमें धर्मागारमें सामायिककरके षडाववश्यक प्रतिक्रमण करे. पीछे अपने घरमें आके शांतबुद्धिवाला हुआ, जब एक पहर रात्रि जावे तब अर्हत्स्तवादिक पढके प्रायः ब्रह्मचर्यव्रतधारी होके सुखसें निद्रा लेवे. जब नींदका अंत आवे तब परमेष्टिमंत्रस्मरणपूर्वक जिन, चक्री, अर्द्धचक्री, आदिके चरितोंको चिंतन करे. और ब्रतादिकोंके मनोरथ अपनी इच्छासे करे, ऐसें अहोरात्रिकी चर्या अप्रमत्त होके समाचरता हुआ, और यथावत् कहे व्रतमें रहा हुआ, गृहस्थ भी शुद्ध अर्थात् कल्याणभागी होता है. । इति व्रतारोपसंस्कारे गृहिणां दिनरात्रिचर्या ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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