SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 570
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एकोनत्रिंशस्तम्भः । ४६५ अच्छीतरें प्राप्त किया निज जन्म जिसने, तथा संचय करा है अतिभारी पुण्यका समूह जिसने, ऐसें भो भो भव्य ! तेरी नरकगति, और तिर्यग्गति, अवश्यमेव बंद होगई. हे सुंदर ! आजसे लेके, तूं, अपजस, नीच गोत्रोंका बंधक नहीं है. तथा जन्मांतरमें भी, यह पंचनमस्कार तुझको दुर्लभ नही है. पांच नमस्कारके प्रभावसें जन्मांतरमें भी तुझको प्रधान जाति, कुल, आरोग्य संपदाएं प्राप्त होंगी. और इसके प्रभावसें मनुष्य कदापि संसारमें दास, प्रेष्य, दुर्भग, नीच, और विकलेंद्रिय नही होते हैं. किंबहुना. जे इस विधिसें इस श्रुतज्ञानको पढके श्रुतोक्त विधिसें शुद्ध शील आचारमें रमे-क्रिडा करे, वे, यदि तिसही भवमें उत्तम निर्वाणको प्राप्त न होवे तो, अनुत्तर अवेयकादि देवलोकोंमें चिरकाल क्रीडा करके उत्तम कुलमें उत्कृष्ट प्रधान सर्वांगसुंदर प्रकट सर्वकला प्राप्त करे हैं, अर्थ जिनोंने, ऐसें लोकोंके मनको आनंद देनेवाले होयके, देवेंद्रसमान ऋद्धिवाले, दयामें तत्पर, दानविनयसंयुक्त, कामभोगोंसें निर्विन्न-विरक्त संपूर्ण धर्मका अनुष्ठानकरके शुभ ध्यानरूप अग्निकरके चार घातिकर्मरूप इंधनको दग्ध किये हैं-जला दिये हैं जिनोंनें, ऐसें महासत्त्व, उत्पन्न हुआ है, विमल निर्मल केवल ज्ञान जिनोंको, सर्व मलकर्मसे रहित होकर शीघ्र सिद्ध होते हैं. ॥ ५३ ॥ यह निर्मल फल जाणके बहोत मान देने योग्य जो देव, सोही भये सूरि, ऐसें जो जिन तिनके वचनसे यह उपधान महानिशीथ सूत्रसे सिद्ध करो.-इस आंतम गाथामें प्रकरणकर्ता श्रीमान देवसूरिने भगवान्के 'महमाणदेवमूरिस्स' इस विशेषणद्वारा अपना भी नाम, सूचन करा है. ॥ ५४ ॥ इत्युपधानप्रकरणभावार्थः॥ ॥ इत्युपधानविधिः॥ अथ उपधान तपके उद्यापनरूप मालारोपणका विधि कहते हैं. ॥ तहां पिछलाही नंदि क्रम जाणना.। और इतना विशेष हे कि, मालारोपण उपधानतपके पूर्ण हुए तत्कालही, वा दिनांतरमें होता है. तहां यह विधि है. ॥ मालारोपणसे पहिले दिनमें साधुयोंको अन्न पान वस्त्र पात्र वसति पुस्तक दान देवे, संघको भोजन देवे, वस्त्रादिकसें संघकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy