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तत्त्वनिर्णयप्रासादउत्कृष्ट चोक्ष वस्त्र तिनके प्रदानपूर्वक भक्तिविधानकरके उपधानवाहिने श्रीसंघका भारी सन्मान करना.॥३१॥ _इस अवसरमें अच्छीतरें जान्या है गंभीर समयसिद्धांतका सार जिसने, ऐसे गुरुने, आक्षेपिणी, विक्षेपिणी, संवेदिनी, और निर्वेदिनी यह चार प्रकारकी धर्मकथा श्रद्धासंवेग साधनेमें निपुण भारी प्रबंध करके करनी. ॥३३॥
तदपीछे तिस भव्यजीवको श्रद्धासंवेगमें तत्पर जाणके, निपुणमति आचार्य, चैत्यवंदनादि करनेमें यह वचन कहे. ॥ ३४ ॥
भो भो देवानुप्रिय! निज जन्म साफल्यताको प्राप्त करके तैंने आजसे लेके जावजीवपर्यंत तिनोंही कालमें एकाग्र सुस्थिर चित्तकरके अर्हत्य तिमायोंको वंदना करनी. क्योंकि, क्षणभंगुर मनुष्यपणेसें यही सार है: तहां तैंने पुर्वान्हमें जबतक जिनप्रतिमाको और साधुयोंको वंदना विधि पूर्वक नही करी है, तबतक पानी भी नही पीना. मध्यान्हमें फिर वंदना करकेही भोजन करना कल्पे, और अपरान्हमें भी फिर वंदना करकेही सोना कल्पे, अन्यथा नही. ॥ ३८॥
ऐसें अभिग्रहबंधन करके पीछे वर्द्धमान विद्यासें अभिमंत्रके गुर सात मुट्ठीप्रमाण गंध (वासक्षेप) ग्रहण करे. पीछे तिस उपधानवा. हीके मस्तकऊपर “ निथ्थारगपारगो हविज्ज तुमं” ऐसें उच्चारण करता हुआ गुरु, नमस्कारपूर्वक निक्षेप करे (डाले) इस विद्याके प्रभावके जोगसें निश्चय, यह भव्य अधिकृत प्रारंभित कार्योंका शीघ्र निस्तार करनेवाला, और पार होनेवाला होवे.॥४१॥ __ अथ चतुर्विध संघ, तूं, निस्तारक पारग हो, तूं धन्य है, सलक्षण है, इत्यादि बोलता हुआ, तिसके मस्तकऊपर वासक्षेप करे. ॥ ४२ ॥
तदपीछे जिनप्रतिमाके पूजादेशसें सुरभिगंधसंयुक्त अम्लान श्वेतमाला ग्रहण करके, गुरु अपने हाथोंसें तिस उपधानवाहीके दोनों खंधोंऊपर आरोपण करता हुआ, शुद्ध चित्तकरके निसंदेह ऐसा वचन कहे. ॥४४॥
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