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एकोत्रिंशस्तम्भः ।
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भक्तिवाला भी जो प्राणी, उपधानविना श्रुतको ग्रहण करे, तिसको नही ग्रहण करनेवालेके सदृश जाणना. तथा सो जीव, तीर्थंकरकी, तीर्थंकरके वचनोंकी, संघकी, और गुरुजनकी, आशातना करता है. सो आशातना बहुल प्राणी, हे गौतम संसारमें भ्रमण करता है. प्रथमही जिसने सुणके, पांच मंगल पढ लिया है, तिसको भी उपधानमें तत्पर होनेसें बोधि, जिनधर्मप्राप्ति, सुलभ कही है. यह उपधानकरके प्रधान, निपुण, संपूर्ण भी वंदनविधान, जिनपूजा, पूर्वकही श्रुतोक्त नीतिकरके पढना. तिस पंच मंगलको स्वर, व्यंजन, मात्रा, बिंदु, पदच्छेद, स्थानोंकरके शुद्ध पढके, चैत्यवंदन सूत्रको, और अर्थको विशेषकरके जाणे. तिसमें जहां सूत्रविषे, वा अर्थविषे, संदेह होवे तो, तिसको बहुशः विचारके संपूर्ण निःशंक संदेहरहित करना ॥ २१ ॥
अथ शुभतीथि, करण, मुहूर्त्त, नक्षत्र, जोग, लग्नमें, चंद्रबलके अनुकूल हुए, कल्याणकारी प्रशस्त समय में, अपने विभवानुसार भगवान्का पूजन करा है जिसने परम भक्तिसें विधिपूर्वक साधुवर्गको प्रतिलंभ करा है जिसने, भक्तिके अतिसमूहकरके सहित, हर्षवशसें खिडे हैं, बहोत पुलक (रोम) जिसके, श्रद्धासंवेगविवेक परम वैराग्ययुक्त, दूर करे हैं, निविडरागद्वेषमोहमिथ्यात्वमलरूप कलंक जिसने, अति उल्लसायमान निर्मल अध्यवसाय करके, अनुसमय, त्रिभुवनगुरु जिन भगवान् की प्रतिमा स्थापन किये हैं, नेत्र, और मन, जिसने, तथा जिन चंद्रको वंदना करनेसें मैं धन्य हूं ऐसें मानते हुए, अपने मस्तक के ऊपर रचा है, करकमलरूप मुकुट जिसने, जंतुरहित स्थान में पदपदमें निःशंक सूत्रार्थको भावते ( विचारते) हुए, ऐसें पूर्वोक्त विशेषणवाले उपधानवाहिने, जिननाथके कथन करे गंभीर समयसिद्धांत में कुशल, शुभचारित्रसंयुक्त, अप्रमादादि बहुविध गुणोंकरी संयुक्त, ऐसें गुरुके साथ, चतुर्विध संघसंयुक्त, विशेषसें निजबंधुसहित, इस निपुणविधिकरके जिनबिंधको वंदना करनी ॥ २९॥
तदनंतर उपधानवाही, गुणाढ्यसाधुयोंको परम भक्तिसें वंदना करे. तथा साधर्मियोंको यथायोग्य प्रणामादि करे. पीछे जितने बहुमोलके
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