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अष्टाविंशस्तम्भः ।
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अमुगस्स सुओ अमुगो सो गिण्हेर इत्थ गिहिधम्मं ॥ अमुगस्स अमुगकंता अमुगा वा साविआ चेव ॥ ४६ ॥ जुज्झमि गोगहम्मि अ चेइअगुरुसाहुसंघउवसग्गे ॥ तह दुट्ठनिग्ग चिअ जीवविघाए न मह दोसो ॥ ४७ ॥ जणदेसरक्खणत्थं हणणे मह सीहवग्घसत्तूणं ॥ नहु दोसो जलपिअणे गलणं अन्नत्थ जहंसती ॥ ४८ ॥ इत्थेव पमाएणं घुरुवयणेणं इमं तवं कुवे ॥ अप्पबहुभंगएणं तेणं जायइ मह विसोही ॥ ४९ ॥
भाषार्थ :- अमुक जिनेंद्र को नमस्कार करके, अमुक श्राविका, वा अमुक श्रावक अमुक गुरुके पासे, गृहस्थधर्मको अंगीकार करता है . ॥ १ ॥
श्री अरिहंतको वर्जके अन्य देवको नमस्कार न करूं, जिनमतके सुसाधुको छोडके अन्य लिंगिको धर्मार्थे नमस्कार न करूं । २ । जिन बचन स्याद्वादयुक्त जो सप्त वा नव तत्त्व तिनको सत्य करी जानता हुँ, मिथ्याशास्त्रोंके श्रवण पठन लिखनेका मुझको नियम होवे । ३। परतीर्थियांको प्रणाम, उद्भावन, स्तवन, भक्ति, राग, सत्कार, सन्मान, बान, विनय, वर्जु-न करुं । ४ | धर्मकेवास्ते अन्य तीर्थमें तप, दान, ज्ञान, होमादिक नही करुं. तिनके उचित करने योग्य कर्म में जयणा मुझको होवे । ५ । तीन, वा पांच, वा सातवार यथाशक्ति चैत्यवंदन करु; एक वा दो वा तीन वार, प्रतिदिन सुसाधुको नमस्कार करूं, और तिसकी सेवा करुं । ६ । एक वा दो, वा तीनवार प्रतिदिन जिनपूजा करूं; और पर्वदिनमें स्नात्रादि अधिक अधिकतर पूजा करूं. इतिसम्यक्त्वम् ।
कुलाचार विवाहादि कृत्य में जीवबध होते जयणा करूं । ७ । विना प्रयोजन एकेंद्रियका भी बध न करूं, प्रयोजनके हुए जयणा करुं । इतिप्रथमव्रतम् ।
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